सीता मैया | Sita Maiya
जानकी देवी कई वर्षों बाद बिहार के छोटे से कस्बा नुमा गांव लोदमा में अपनी छोटी बहन रूपाली के यहां कल रात्रि में आई और आज सवेरे सवेरे प्रातः बेला छोटी बहन के मकान के सामने खाली जमीन पर लगी हुई सब्ज़ियों कुछ गोभी कुछ मूली के पौधे कुछ धनिया पत्ती कुछ टमाटर कुछ बैगन एक छोटा सा कड़ी पत्ता का झाड़ हरा भरा नजारा देखकर बड़ी ताजगी महसुस कर रही थी ।
तभी अचानक जानकी देवी को याद आया क्यों वह कैसे मायूस और लाचार होकर अपना आलीशान बांग्ला शानो शौकत नौकर जाकर छोड़कर कुछ पल सुकून की तलाश में यहां आई है ।
पति प्रोफेसर सुभाष जी के आधार विहीन विचार से वह इतना तंग आ चुकी है की समझ ही नहीं पा रही है कि क्या करूं क्या ना करूं । विचारों में ताल मेल ना होने के कारण अक्सर विवाद होना रूटिंग हो गया था।
दोनों बच्चे महेश और दिनेश वेल सेटल्ड है अपने-अपने परिवार में मस्त बच्चे कभी कभार माता-पिता को समझने की कोशिश करते-अब तो उन लोगों ने भी किनारा कर लिया है कि हमारे पास बहुत सारे काम है।
मम्मी पापा का तो बस यही काम है -विशेष कर मम्मी को आहत करना उनका भी स्वभाव सा बन गया आखिर करते क्यों नहीं बच्चे भी तो पुरुष ही है ना ।
जानकी देवी की आंखों से आंसू गालों पर ढुलकने लगे आखिर क्या दोष है इसमें मेरा मुझे पेंटिंग करने का शौक है प्रकृति को अपने कूंची के द्वारा कागज में उतारती हूं उसमें रंगो को भरती हूं मेरी पेंटिंग भावनाओं से भरी होती है।
संदेशपरक लोग पसंद करते मेरी तारीफ होती है इसलिए कला प्रदर्शनी में मेरी पेंटिंग लगाई जाती है मुझे प्रेजेंटेशन देने का मौका मिलता है इसमें हमारा क्या दोष ।
बड़े किस्मत से तो मेहनत का फल मिलता है नाम शोहरत मिलता है सबके हिस्से में यह नहीं होता – मगर पति सुभाष जी को कौन समझाएं वह तो हर बात को नारी पुरुष से जोड़ देते हैं उसे महिला की पेंटिंग भी तो अच्छी थी ।
उसको क्यों नहीं बुलाया गया तुम ही क्यों लोग बुलाते हैं यह बात सुनकर जानकी देवी बहुत आहत हुई उसे लगा के सीधे पति ने उसके चरित्र पर चोट किया है और आए दिन और इस तरह के हरकत करते ही रहते कभी किसी कला प्रेमी का फोन आ जाए तो भारी समस्या उत्पन्न हो जाती है ।
घर पर महाभारत सा हो जाता जानकी देवी खुद को समझने की कोशिश करती हैं कि आखिर पूरे परिवार की देखभाल जिम्मेदारी निभाने के बाद मैंने अपने हुनर को विकसित करने का और अपने मन को संतुष्टि देने का प्रयास करती हूं तो इसमें क्या बुरा है लेकिन सुभाष जी तो जैसे जानकी देवी की प्याज के छिलके की तरह इज्जत उतारने कोई कसर नहीं रखते चाहे रिश्तेदार हो चाहे बच्चे हो ।
आखिर वह भी तो नौकरी शुदा होते हुए भी घर का पूरा ख्याल रखा घर के उन्नति में कदम से कदम मिलाकर सुभाष जी के साथ देती रही कभी उन्होंने अपने आप को पीछे नहीं किया पति के सपने पूरे करने में लेकिन पति पति होने से पहले तो पुरुष होता है ना इस आधुनिक युग में भी जैसे लक्ष्मण रेखा खींच रखा था ।
उन्होंने बात करने में बाहर निकलने में रिश्तेदारों आस पड़ोस के बीच उठने बैठने हर चीज में पाबंदी जानकी देवी अंदर से जैसे चीख उठी नहीं अब नहीं बहुत हो चुका फिर अगले ही पल और सहम गई 65 साल की उम्र में और पति की उम्र 68 साल में जहां एक दूसरे को समझना नहीं समझने की उमर तो गए ।
एक दूसरे के लिए जीना है तो मुझे अलग फैसला लेना उचित होगा या अनुचित और तर्कसंगत तो यह भी है क्या सुभाष जी को नहीं बदलना चाहिए मेरी खुशियों के खातिर अपने दकियानूसी विचारों की कुर्बानी नहीं कर सकते ।
क्या नारी को हमेशा औरों के हिसाब से ढल जाना चाहिए या फिर अपने लिए भी कुछ सोचना चाहिए कि हमारी भी जिंदगी है मैं भी जीना चाहती हूं खुश रहना चाहती हूं मेरी खुशी क्या परिवार की खुशी नहीं हो सकती।
नारी की खुशी या स्वतंत्रता क्या आवारापन का प्रतीक है तमाम सवाल जवाब के चक्रव्यूह में जानकी देवी हल ढूंढने की कोशिश करती हुई छोटी बहन रूपाली के सब्जियों के कयारी में टहल रही थी तभी फोन की घंटी बजी देखा पति सुभाष जी का फोन है और समझ नहीं पा रही कि फोन उठाएं बात करें या वक्त को भी वक्त दे।
आज तो ना राम राज्य है ना राम है ना लखन है फिर सीता की उम्मीद लोग क्यों करते हैं जिन्होंने बेकसूर होकर इतने दुख दर्द सहे क्या सीता मैया ही नारी की असली पहचान है आप सभी पाठक गन से मेरा अनुरोध है की जानकी देवी के इस सवाल का हल ढूंढने में सहयोग करें ।
डॉ बीना सिंह “रागी”
( छत्तीसगढ़ )
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