दर्द ढोते हैं हम | Laghu Katha Dard
घर की स्थिति ठीक नहीं थी तो रमेश का कौन नहीं मजाक उड़ाता था कि पढ़ – लिखकर आखिर क्या करेगा, वह। रमेश फिर भी उनकी बातों पर ध्यान दिए बिना आगे बढ़ने के लिए प्रयास करते रहा। ऐसे ही दिन में अपने-पराए पहचाने जाते हैं।
उसकी नौकरी लगी और जब वह घर आता तो कोई सब्जी लाने के लिए तैयार रहता तो कोई कपड़े पर आइरन कराने के लिए।
“रमेश भैया, हम बाजार जा रहे हैं कुछ लाना होगा तो बोलेंगे आप, हम लेते आएंगे।” छिटफूटिया डिलर ने कहा।
“नहीं डिलर भाई, आपको हम क्यों तकलीफ देंगे। हम खुद अपनी गाड़ी से जाकर लेते आएंगे।” रमेश ने इंकार करते हुए कहा।
“पाँच किलो सब्जी लाने के लिए पाँच सौ रूपए का तेल क्यों जलाएंगे आप? और वह भी हमारे रहते।” डिलर ने अपनापन दिखाते हुए कहा।
“डिलर भैया, आप वही आदमी है न कि जब हमारी नौकरी नहीं लगी थी तो आप एक किलो नमक नहीं ला सके थे और आज पाँच किलो सब्जी लाने के लिए तैयार हैँ।”
“हें ,,,हें ,,,,,हें ,,,,, पुरानी बातें क्यों ढोते हैं, आप।” डिलर हँसते हुए निर्लज्जता की तरह कहा।
“बात नहीं आप जैसे लोगों के दिए दर्द ढोते हैं ताकि सुकून से हम रह सकें और आप भी।” रमेश की जिंदगी आत्मनिर्भरता की है।
विद्या शंकर विद्यार्थी
रामगढ़, झारखण्ड