सबक
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( Laghu Katha : Sabak )

दाता के नाम पर कुछ दे दो भगवान के नाम पर कुछ दे दो। इस गरीब की पुकार सुनो। ऊपरवाला तुम्हारी सुनेगा। अपने हाथों से कुछ दान कर दो।

उस समय मैं ऑटो की तलाश में तहसील रोड पर खड़ा था। तभी मेरे कानों में यह करुण स्वर सुनाई पड़े, देखा सामने ही फुटपाथ पर एक भिखारी बैठा चिल्ला रहा था। सामने ही उसने अपनी फटी झोली पहला रखी थी।

जिसमें चंद सिक्के धूप की रोशनी में जगमगा रहे थे। मुझे उसके ऊपर दया आई क्योंकि मैं बचपन से ही भावुक प्रवृत्ति का रहा हूँ। किसी का जरा सी भी दुख मुझे से बर्दाश्त नहीं होता था। वह तो बड़े कातर स्वर में चिल्ला रहा था।

मुझसे उसका चिल्लाना नहीं देखा गया। मैंने अपनी जेब में हाथ डाला और 2 रूपये का सिक्का निकालकर उसकी झोली में डाल दिया। हालांकि उस समय मेरी जेब में सिर्फ 10 रूपये ही थे, जो ऑटो के केवल आने-जाने का किराया था।

सोचा, कोई बात नहीं आज तांगे से ही चले जाते हैं। तांगे का किराया 3 रूपये था। हो सकता है, इस साधु की दुआ से हम आगे कार में सफर करें।

यह सोचकर मन हल्का हो गया। हम हिचकोले खाते हुए तांगे में बैठ गये। दिल को सुकून था कि आज हमने किसी की मदद की। वरना आज के दौर में कौन किसी को पूछता है।

उस समय हमें एक अनोखी खुशी का एहसास हो रहा था। सोचने लगे लोग नाहक ही दो-चार रूपये के पीछे इस खुशी से अनभिज्ञ रह जाते हैं।

कौन जाने किस वेश में कोई हमें कहाँ मिल जाए और क्या कुछ दे जाए। हमारा भाग्य ही पलट जाए। निःस्वार्थ बिना मतलब दूसरों की सेवा करने का एक ही आनंद होता है। आज उस तांगे का सफर बुरा नहीं लग रहा था।

अभी अपनी खुशियों में मग्न ही था कि दिमाग को एक जबरदस्त झटका लगा। देखा सामने ऑटो में बैठा भाई भिखारी जा रहा है। जिसे उसने 2 रूपये दिए थे।

वह हंस-हंसकर किसी से बातें कर रहा था। उसे लगा मानों वे उसकी नादानी पर ही हंस रहा है। यह वही ऑटो था, जिसे उसने भिखारी की वजह से ही छोड़ दिया था।

उसे उस तांगे में बैठना भारी हो गया। मानो उसमें कांटे उग आयें हो, सफर और लंबा होता जा रहा था। उसे अब उस भिखारी पर नहीं, अपने आप पर दया आ रही थी।

उस भिखारी के सामने उसकी दरियादिली, भावुकता, दयालुता सभी गौण लग रही थी। उसका मन उसे धिक्कार रहा था कि हम जैसे लोग ही इन हट्टे-कट्टे महात्मा भिखारियों को पैसे देकर भिक्षावृत्ति को बढ़ावा देते हैं। ऐसे नाकारा, नाकाम लोगों की संख्या में वृद्धि करते हैं।

उसके बाद हमने तौबा की कि कभी भूले से भी किसी भिखारी खासकर तंदुरुस्त को कभी भिक्षा नहीं देंगे। चाहे वह कितना ही चिल्लाता रहे। उसके लिए भले ही कानों में उंगली डालने पड़े।

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रुबीना खान

विकास नगर, देहरादून ( उत्तराखंड )

 

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