चाँद की व्यथा | Kavita Chand ki Vyatha
चाँद की व्यथा
( Chand ki Vyatha )
चाँद सागर से कहता रहा रात भर,
तुम मचलते रहो मैं तरसता रहूँ ।।
तुम उफनते रहो अपनी लहरों के संग
मैं तो खामोश तुम को तकता रहूँ l
अपनी पलकों में तुमको छिपाये हुए,
मैं यूँ ही उम्र भर बस पुलकता रहूँ ।।
अपने दामन को रत्नों से भरते रहो,
मैं यूँ ही रीत कर खुद में थकता रहूं l
अपनी साँसों में तुमको बसाये हुए,
आप ही आप बस मैं दरकता रहूँ ।।
अपनी सीमा से बाहर निकलते रहो,
दायरों में अकेला तरसता रहूँ l
कच्चे धागों में तुमको लपेटे हुए,
आप ही आप बस मैं सरसता रहूँ ।।
सुशीला जोशी
विद्योत्तमा, मुजफ्फरनगर उप्र