हमारे प्राइमरी स्कूल के शिक्षक : संस्मरण
प्राथमिक शिक्षण किसी भी व्यक्ति को जीवन निर्माण की नींव तैयार करता है। नींव जितनी कमजोर होगी तो भवन का निर्माण कैसे मजबूती से हो सकेगा? भारत सरकार उच्च शिक्षा पर तो अत्यधिक जोर दे रही है परंतु प्राथमिक कक्षाओं के शिक्षण का स्तर इतना घटिया दर्जे का है कि उसे भुक्तभोगी ही समझ सकता है।
विद्यालयों का कोई नियम ही नहीं होता । यदि ऐसा विद्यालय पिछड़ी तपको में है तो उसकी हालत और भी खस्ताहाल होगी। एक तो छोटे-छोटे बच्चे ज्यादा विरोध तो कर नहीं पाते हैं इसलिए ऐसे विद्यालयों में अध्यापकों की और मौज हो जाती है।
यही प्राथमिक कक्षाओं में जो बच्चे सताए जाते हैं वही बड़े होने पर अध्यापकों से जमकर बदला लेते हैं । ऐसे में बच्चों को यही कहा जाता है कि वह नालायक है, जो किसी की नहीं सुनते परंतु अध्यापकों को नहीं लगता कि इसकी जड़ कहीं न कहीं हमने ही बचपन में बोई थी जो आज जाकर फल फूल रही हैं।
मैंने हैदर पब्लिक स्कूल, मेरठ में अध्ययन के दौरान अनुभव किया कि बड़े बच्चों को कितना भी मारा जाए वह किसी की नहीं सुनते।
शिक्षा पद्धति की यह बहुत बड़ी खामी है कि बच्चों को आज भी डंडे के बल पर हांका जा रहा है । कुछ अध्यापक तो बच्चों को पीटना अपना अधिकार समझते हैं। हाथ से तो ज्यादा नहीं मारते हैं क्योंकि चोट आ जाने का डर है परंतु मारने के लिए विशेष तौर से डंडा रखते हैं।
शहरी क्षेत्र की अपेक्षा गवई क्षेत्र में ज्यादा बच्चों की पिटाई होती है। उन्हें ऐसा मारा जाता है जैसे जानवरों को भी नहीं मारा जाता होगा। जो विद्यालय दादा टाइप के हैं उनकी तो पूछो ही मत।
ऐसे विद्यालय में छात्र कितनी भी शिकायत करता रहे परंतु उसकी कोई नहीं सुनता ।यदि माता-पिता से कहता भी है, तो यही कहकर अभिभावक अपना पल्ला झाड़ लेते हैं कि तेरी ही गलती रही होगी और बच्चों को ही ऊपर से डांटते हैं ।
मैंने अनुभव किया है कि जो अध्यापक अपने घर परिवार के समस्याओं से ज्यादा परेशान होते हैं वही बच्चों को खूब मारते हैं। घर का सारा गुस्सा बच्चों पर उतार देते है।
मेरी प्राइमरी कक्षा के कुछ अध्यापक बच्चों को मारने में बहुत एक्सपर्ट थे । सभी का नाम तो नहीं पता लेकिन चेहरे जरूर याद है। एक थे- सत्यम मास्टर । गुस्सा आने पर पूछो ही मत ।
ऐसी धुनाई करते थे कि बच्चों की जान लेकर ही छोड़ते थे। दूसरे थे पंडित जी (नाम याद नहीं ) वह मारते तो कम थे , लेकिन जब पारा चढ़ जाता था तो वह भी आगे पीछे नहीं देखते थे और पिल पड़ते थे फट्टा लेकर । फिर बिना बच्चों का कचूमर निकल नहीं छोड़ते थे।
एक हरिजन जाति के गुरुजी थे ।वह एक दिन वह हम सब को समझाने लगे कि -“देखो बच्चों! सभी का शरीर चमड़ी से ही तो बना है इसलिए सभी चमार हैं ।ना कोई ऊंचा है ना नीचा बल्कि परमात्मा ने सभी को सामान बनाकर ही इस दुनिया में भेजा है। इसलिए भेदभाव हमें नहीं कभी किसी से नहीं करना चाहिए। भेदभाव बरतना परमात्मा का अपमान करना है।
निम्न जाति का होने के कारण अक्सर उनका मजाक उड़ाया जाता लेकिन वह सबको नजर अंदाज करके अपने काम में लगे रहते । मानवीय एकता का पाठ पढ़ाना जैसे उनका एकमात्र उद्देश्य हो।
बड़े होने पर अनुभव करता हूं कि उनकी मार में भी प्रेम छुपा होता था। माता-पिता एवं गुरुजनों की मार जो व्यक्ति सह लेता है वही जीवन में एक महान इंसान बनता है।
आज हमारे सभी प्राथमिक विद्यालयों के अधिकांश शिक्षक नहीं है लेकिन उनके डांट डपट मार का प्रभाव है कि हम जीवन की सफलता के उच्चतम शिखर पर पहुंचा दिया ।
विद्यार्थी जीवन में अनुशासन का विशेष महत्व है। अनुशासित विद्यार्थी जीवन की सफलता प्राप्त कर सकता है।योग का प्राथमिक सूत्र भी अनुशासन है। जिस बच्चे को बचपन में अनुशासन बद्ध रखा जाता है उसका प्रभाव उसके संपूर्ण जीवन पर पड़ता है। अनुशासन के बिना जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता पाना मुश्किल है।
इसके बाद हमारा नाम कक्षा चार में अशर्फीलाल जायसवाल जूनियर हाई स्कूल में जो बाबूगंज बाजार के अंत में स्थित है लिखाया गया । वास्तव में देखा जाए हमारी शिक्षा का श्री गणेश यहीं से हुआ क्योंकि गांव के प्राथमिक विद्यालय में एक प्रकार से मेरा समय ही बर्बाद हुआ। मुझे ठीक से अक्षर ज्ञान भी नहीं हो पाया था।
यहां के एक अध्यापक थे श्री राम बहादुर गुरुजी जो की गणित पढ़ाते थे। वह गणित को खेल-खेल में ही समझा देते थे। उनका वरद हस्त आज भी हमें प्राप्त हो रहा है ।जब भी घर जाता हूं तो उनसे जरूर मिलने का प्रयास करता हूं ।
वे ऐसी बातचीत करते हैं जैसे एक मित्र हों । वह हमारे एक अच्छे मार्गदर्शक की भांति थे । कोरोना काल में उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन उन्होंने जो प्रेम अपनत्व दिया वह आज भी हृदय की गहराइयों में अनुभव करता हूं।
राम सिंह गुरु जी संस्कृत पढ़ाया करते थे । वह एक छोटी सी छड़ी रखते थे ।नहीं आने पर पिटाई कर देते थे । मैं संस्कृत में बहुत कमजोर था। श्लोक वगैरा मुझे रटा नहीं जाते थे इसलिए अक्सर मैं पीट जाता था। लेकिन वह संस्कृत बहुत अच्छी तरह पढ़ाते थे ।
वह कहते हैं -“हमें संस्कृत भाषा का ज्ञान अवश्य करना चाहिए। जितने भी हमारे प्राचीन साहित्य हैं सभी संस्कृत में ही लिखे गए हैं ।मंत्र भी सभी संस्कृत में है। यदि तुम लोग संस्कृत नहीं पढ़े हुए हैं तो कैसे अपने प्राचीन धरोहर को बचा सकोगे।
बेटा जिस देश के नागरिक को अपनी संस्कृति सभ्यता से प्रेम नहीं होता उसे नष्ट होने से कोई नहीं बचा सकता । हमें संस्कृत पढ़ने लिखने एवं बोलने पर गर्व होना चाहिए।
आज सोचता हूं कि कितनी सत्य थी उनकी बात । आज पछताता हूं की कास अगर अच्छी तरह से संस्कृत पढ़ा होता तो बहुत प्रयास के बाद भी मैं सुर लय ताल के साथ वैदिक मंत्रों का उच्चारण कर पाता। गीता पाठ थोड़ा-थोड़ा कर लेता हूं।
महेंद्र प्रताप गुरु जी भूगोल पढ़ाते थे । वे स्कूल से सात आठ किलोमीटर साइकिल से आते थे। मैंने देखा कि आज भी साइकिल से ही आते हैं ।वहीं के अधिकांश अध्यापक अब रिटायर हो चुके हैं ।
प्रधानाचार्य जी बहुत ही सज्जन व्यक्ति थे ।वे जीवन की अंतिम समय तक प्रधानाचार्य रहे ।कुछ वर्षों पूर्व उनका देहांत हो जाने के पश्चात राम जियावन गुरु जी प्रधानाचार्य बने , उसके पश्चात राम बहादुर मास्टर साहब प्रधानाचार्य बने, उसके बाद राम सिंह मास्टर साहब प्रधानाचार्य बने वर्तमान समय में सभी अध्यापक रिटायर्ड हो चुके हैं।
प्रधानाचार्य जी द्वारा बताया गया अंधविश्वासों के प्रति एक किस्सा आज भी याद आता है ।वह एक बार बच्चों से कहने लगे कि -“आज मैं भूत प्रेत पैदा करने की दवाई बताता हूं ।”
फिर वह कहने लगे -“देखो जिस रास्ते से स्त्रियां प्रातः काल शौच जाती हैं उसी चौराहे पर तुम एक लोटा में जल लेकर उसमें फूल माला डाल दो और वहीं पर जल डालकर ऊपर से फूल चढ़ा दो माला चढ़ा दो नींबू काट दो तो तुम देखोगे कि सुबह 10:20 औरतें भूत से ग्रसित मिलेंगी ।जिस भी स्त्री का पैर उस पर पड़ेगा वह बीमार हो जाएगी।”
उन्होंने बताया कि ऐसा इसलिए होता है कि -“उनके मन में एक भय बैठ जाता है कि कोई निकारी कर दिया है ।इस डर से वह बीमार पड़ जाती हैं।”
उन्होंने आगे बताया कि -“भूत प्रेत नाम की कोई चीज नहीं होती है । जब कोई व्यक्ति वहां से निकलता है तो उसके मन-मस्तिष्क भय व्याप्त हो जाता है। यदि बच्चों को बचपन से ही इस प्रकार के वहम से दूर रखा जाए तो वह एक स्वस्थ नागरिक बन सकते हैं।
विद्यालय में शौकत अली गुरुजी थे जो की बहुत अच्छा पढ़ाते थे ।मुस्लिम होते हुए भी वे हनुमान जी के भक्त हैं और हर रविवार को अपने घर में छुआ मंतर भी करते हैं ।जिसमें बहुत सी स्त्री पुरुष उनके यहां भूत प्रेत उतारने के लिए आती हैं ।ऐसा वे बहुत सालों से कर रहे हैं।
विद्यालय में एक चपरासी राम आधार यादव जी थे जो की अंतिम समय तक वहां चपरासी थे ।वह भी एक बहुत दिल नेक इंसान थे।
इस विद्यालय को कोई सरकारी अनुदान नहीं मिलता था। प्रबंधक भी कभी विद्यालय के विकास के बारे में नहीं सोचा। यही कारण रहा है कि जिस प्रकार से पिछले 25- 30 वर्षों पूर्व विद्यालय था आज भी उसी हालत में है । एक भी कमरे का निर्माण नहीं हो सका है आज तक।
सच्चे अर्थों में देखा जाए तो इसे कहते हैं तपस्वी का जीवन। जीना । घर परिवार छोड़कर घने जंगल में तपस्या करने की अपेक्षा अभाव में रहते हुए बच्चों को जीवन निर्माण की कला सीखलाना क्या किसी तपस्या से कम है।
एक दिन राम जियावन गुरुजी चर्चा करते हुए बताया कि -“मेरी पत्नी रोज लड़ती की कौन सा स्कूल में फूल चुवत है जो तुम छोड़ नहीं देते । सारी जिंदगी कलम घिस्ते बीत गए। सर के सारे बाल सफेद हो गए लेकिन क्या मिला तुम्हें ।तो पढ़ाने का नशा सवार है ।कभी इन बाल बच्चों का भी ख्याल रखा होता।”
उन्होंने बताया कि घर में खेती बाड़ी का काम कर लेने के कारण जिंदगी कट जा रही थी। हालांकि आज जाकर विद्यालय को सरकारी अनुदान मिलने लगा है परंतु सारी जवानी तो खत्म हो गए।
आज की व्यावसायिक विद्यालयों को सीख लेनी चाहिए कि दुनिया में आज भी त्यागी तपस्वी शिक्षक हैं जिनकी बदौलत शिक्षा की गरिमा बनी हुई है।
योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )