शिक्षा जगत में बढ़ते गिरावट से पूरा विश्व प्रभावित हो रहा है। भारत के साथ ही पश्चिमी देशों में भी सामाजिक चिंतकों को यह सोचने के लिए बाध्य होना पड़ रहा है कि इसी प्रकार युवा पीढ़ी में यदि अनुशासनहीनता, नशाखोरी , बाल अपराध बढ़ते रहे तो कौन उन्हें दिशा देगा ?

क्या उन्हें अपने हालात पर ही छोड़ दिया जाए या कोई सार्थक कदम भी उठाए जाने की आवश्यकता है। गांधी जी कहते थे कि मेरा जीवन ही मेरा संदेश है । आचार्य वह है जो आचरण द्वारा सिखाए । परंतु आचार्य लोगों का आचरण भी बच्चों की तरह का घटिया स्तर का होता जा रहा है ।

जब बीज ही सड़ा होगा तो स्वस्थ बीज की कल्पना कैसे की जा सकती है । आज अध्यापकों का बच्चों के वैचारिक विकास की ओर ध्यान ना लगा कर दुनिया भर की तिकड़म में ज्यादा लगता है। कोई पेपर आउट करवा रहा है तो कोई पास करने का ठेका ही लिए बैठे हैं।

ऐसे में मद्रास के तिरुतरी गांव में 5 सितंबर , 1818 ई को एक ऐसे दिव्य आत्मा ने जन्म लिया जिसने भारतीय दर्शन जगत का परचम पूरे विश्व में फैलाया । वे चलते फिरते एनसाइक्लोपीडिया थे । अध्यात्म और दर्शन जगत की गूढ़ से गूढ बातों को इतनी सहजता से व्यक्त करते थे कि अन्य दार्शनिक दांतों तले उंगली दबाए बिना नहीं रह सकते थे। उन्होंने शिक्षक पद की गरिमा को बढ़ाने में अपने जीवन को होम कर दिया।

राधाकृष्णन के पिता वीर स्वामी उच्च धर्म शास्त्रों के प्रकांड विद्वान थे । इसीलिए उन्हें बचपन में से ही शास्त्रों के संपर्क में आने का के कारण धर्म के प्रति निष्ठा, जिज्ञासा , ईश्वर के प्रति अनुराग के भाव साथ में फूटने लगे थे। बचपन से ही उनका स्वभाव चिंतनशील बन गया था। अन्य बच्चों की बात उदंनडतापूर्ण व्यवहार उन्हें अच्छा नहीं लगता था ।

प्रारंभिक शिक्षा गांव में प्राप्त करने के पश्चात वे उच्च शिक्षा के लिए मद्रास के क्रिश्चियन कॉलेज में भर्ती हुए। उन्ही दिनों स्वामी विवेकानंद का आगमन मद्रास में हुआ। वह उनकी दार्शनिक तर्क पूर्ण बातों से इतना प्रभावित हुए की मात्रा 20 वर्ष की अवस्था में दर्शनशास्त्र में एम ए पास कर लिए । उनके वेदांत पर लिखे शोध निबंध के लिए अलग से अध्यापक श्री ए जी हाग ने एक प्रमाण पत्र देकर किया ।

उसी वर्ष मात्र 20 वर्ष की अवस्था में मद्रास के प्रेसिडेंट कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर बना दिए गए । पढ़ने के साथ-साथ उनका शोध पूर्ण स्वाध्याय कार्यक्रम चलता रहा। उनका क्रिश्चियन मिशन के स्कूल कॉलेज में हिंदू धार्मिक धारणाओं तथा आस्थाओं पर किए जाने वाले कुठाराघात से बहुत दुखी होते। उनका हृदय पीड़ा से दहल उठता। वे अपनी ओर से उत्तर देने का प्रयास करते पर अंतिम प्रयासों से कुछ हासिल होने वाला नहीं था । क्योंकि यह ऊंट के मुंह में जीरे की भांति था।

उन्होंने संकल्प लिया कि मैं भारतीय दर्शन एवं चिंतन की ऐसी अभेध्य दुर्ग का निर्माण करूंगा जिससे पाश्चात्य जगत को भी भारतीयता का लोहा मानने को मजबूर होना पड़ेगा । इसके लिए गहन साहित्य साधना की तपस्या करना पड़ेगा ।

उन्होंने सर्वप्रथम 1920 में ‘दि फिलासफी आफ रविंद्र नाथ टैगोर’ एवं ‘ द रीजन आफ रिवीजन इन कोरम्पथेरी फिलासफी ‘का प्रकाशन कराया। ‘इंडियन फिलासफी’ तथा’ दि हिंदू व्यू ऑफ लाइफ’ में उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर का व्यक्ति बना दिया ।

विवाद —
कहा जाता है कि जिस भारतीय दर्शन के कारण डॉक्टर राधाकृष्णन की प्रसिद्ध हुई वह पुस्तक उनके छात्र यदुनाथ सिंहा द्वारा उनके पास जांचने गए थे जो लगभग 2000 पेज की थी। उसको उन्होंने अपने नाम से छपा लिया था। यदुनाथ सिंहा को जब यह पता चला तो वह कोर्ट में गए।

सिंहा बहुत ही गरीब छात्र थे। यही कारण था कि उन्हें₹10000 देकर कोर्ट के बाहर निपटारा करवा लिया गया।
भारतीय समाज जितना धार्मिक है उतना ही पाखंडी भी है। यह इस देश का दुर्भाग्य ही है कि शिक्षक दिवस हम एक ऐसे व्यक्ति के जन्मदिन पर मानते हैं जिस पर अपने ही छात्र थीसिस चोरी का आरोप है।

आज डॉक्टर राधाकृष्णन का नाम तो चारों ओर विख्यात है लेकिन यदुनाथ सिंहा इतिहास के पन्ने में बहुत पीछे ढकेल दिए गए।

इस समाज में गरीब व्यक्ति का सदैव से शोषण होता है और होता रहेगा। यह विवाद डॉक्टर राधाकृष्णन के जीवन का काला अध्याय सिद्ध होता है।

इतने उच्च शिखर पर पहुंचने के बाद भी उनकी विनम्रता एवं सादगी में कोई कमी नहीं आए थे। सामान्य धोती कुर्ता एवं सिर पर पगड़ी पहन करके ही उन्होंने अमेरिका के मैनचेस्टर कॉलेज में व्याख्यान दिया।

उनकी सादगी एवं वाह्य वेशभूषा से नाक भौं सिकोड़ने वाले उनकी विद्वता के कायल हुए बिना नहीं रह सके। 1931 ईस्वी में ही उन्हें इंटरनेशनल इंटेलेक्चुअल को ऑपरेशन कमेटी (अंतर्राष्ट्रीय बौद्धिक सहयोग समिति) का सदस्य बनाया गया।

डॉ राधाकृष्णन कितने सा ह्रदय थे इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि हजारों लाखों लोगों को मौत के घाट उतारने वाला स्टालिन को भी जब वह रूस से लौट रहे थे तो कहना पड़ा कि -“आप पहले ऐसे व्यक्ति हैं जिसने मुझे मनुष्य समझ कर व्यवहार किया। आप हम सबको छोड़कर जा रहे हैं जिसका हमें भारी दुख है ।”

यह कहते हुए स्टालिन की आंखों में आंसू निकलने लगे । स्वतंत्र भारत के वह प्रथम उपराष्ट्रपति बनाए गए ।1962 में वे राष्ट्रपति बने इसी वर्ष चीन ने आक्रमण कर दिया । उन्होंने बड़ी सूझबूझ से इस असमय आपदा का सामना किया।

बड़े धैर्य के साथ उन समस्याओं से उबरने के भर्षक प्रयत्न किया ।उन्हें भारतीय राजनीतिक व्यवस्था से बहुत छोभ होता था । 1967 में इसीलिए पुनः राष्ट्रपति पद हेतु खड़े होने से इनकार कर दिया।
17 अप्रैल 1975 को पक्षाघात होने से सदा- सदा के लिए चिर निद्रा में विलीन हो गए।

जब तक वे जीवित रहे भारत देश की समृद्धि के लिए सदैव प्रयत्न करते रहे । विशेष कर बच्चों से उनकी बहुत आशाएं थीं। वे बच्चों की आंखों में भारत के भविष्य की तस्वीर देखते थे। भारत के विभिन्न विश्वविद्यालय में शिक्षण कार्य करते समय विभिन्न देशों में व्याख्यान देते समय वे बच्चों से जुड़े मुद्दे उठाते थे ।

वे शिक्षा जगत में बढ़ते गिरावट का दोषी अध्यापकों को ही मानते थे। उनके विशाल व्यक्तित्व के कारण उनकी मृत्यु के पश्चात उनके जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाने लगा ।यह भारतीय राजव्यवस्था का उनके प्रति असीम प्यार एवं स्नेह का नतीजा था।

 

योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )

यह भी पढ़ें:-

जिम्मेदार कौन | Zimmedar Kaun

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here