चक्र जो सत्य है
चक्र जो सत्य है
कुछ भी अंतिम नहीं होता,
न स्पर्श , न प्रकृति और न कविता ,
बस दृष्टिकोण बदल जाता है
क्योंकि, चक्र जीवन , पवन , गुरुत्वाकर्षण का
अनवरत सहयात्री बन धरा को थामे ,
खड़ा है पंच तंत्र के केंद्र पर तन्हा,
पूछता
क्या मजहब पेड़ , पानी, धरा, पवन , आकाश का ,
लिखा है किसी ने बस वही खड़ा हो और बोले ,
उत्तर नदारद देख मन कराह उठा ,बोल उठा
चक्र के चक्रव्यूह में खड़े होकर ,क्या लक्ष्य है
बताओ तो जरा , वरना
किसी को ललकारे बिना कर लो आत्महत्या ।
यही अनवरत है
विचारों का अतिरेक सोचता
काश अक्षर जन्म न लेता
तो कविता अधूरी न रहती।
नरेंद्र परिहार
नागपुर महाराष्ट्र
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