मंदाकिनी बहने लगे
मंदाकिनी बहने लगे
तार वीणा के छिड़े तो , बस एक स्वर कहने लगे ।
छेड़ ऐसी रागिनी दो , मंदाकिनी बहने लगे ।
गूँजती हैं फिर निरंतर , वेद मंत्रों की ऋचाएं ।
अग्नि कुंडों में कहाँ तक, प्यार की समिधा जलाएं ।
हम अमा की पालकी में , पूर्णिमा कितनी बिठाएं ।
क्यों अकेले ही विरह की , हम वेदना सहने लगे ।
बज उठीं जब – जब शिवालय , की यह मनोरम घंटियाँ ।
ढूँढती हैं हर दिशा में , उनकी झलक दृग सीपियाँ ।
जल उठीं हैं फिर हृदय क्या , इस प्राण तन की धमनियाँ ।
स्वप्न मणियों के अचानक , क्योंकर भवन ढहने लगे ।
छेड़ ऐसी—-
पूर्व की अनुभूतियों से , यह मन बहल पाता नहीं ।
दर्शनों की प्यास लेकर , अब तो चला जाता नहीं ।
साँवरे गोपाल को भी , क्यों कर तरस आता नहीं ।
हर निमिष इस चाह में ही , अब हम विकल रहने लगे ।
छेड़ ऐसी—
रेशमी वसना सुसज्जित , रूप के अन्वेषणों में ।
रम रहा है मन सुगंधित , गंध के विश्लेषणों में ।
आज साग़र क्या कहें हम , इन हदय संप्रेषणों में ।
पुष्प वासंती दृगों को , क्यों कंचनी गहने लगे ।
छेड़ ऐसी—-
तार वीणा—-
कवि व शायर: विनय साग़र जायसवाल बरेली
846, शाहबाद, गोंदनी चौक
बरेली 243003
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