मन की पीड़ा
मन की पीड़ा
मन की पीड़ा से जब कांपीं उंगली तो ये शब्द निचोड़े
अक्षर-अक्षर दर्द भरा हो तो प्रस्फुटन कहाँ पर होगा
अभिशापों के शब्दबाण लेकर दुर्वासा खड़े हुए हैं
कैसे कह दूँ शकुन्तला का फ़िर अनुकरण कहाँ पर होगा
नया रूप धर धोबी आए मन में मैल आज भी उनके
ईश्वर ही जाने सीता का नव अवतरण कहाँ पर होगा
गली-गली फिरते दु:शासन भीष्म झुकाए सिर बैठे हैं
रजस्वला उन द्रौपदियों का आँचल हरण कहाँ पर होगा
मीठी चुभन कुटिल कुल्टा सी नौंच रही तन के घावों को
नमक छिड़कने हाथ आ गए सद्आचरण कहाँ पर होगा
वह कोमल कलिका कचनारी मैं धतूर का फूल कसैला
वह बगिया में इठलाएगी मेरा खिलन कहाँ पर होगा
देशपाल सिंह राघव ‘वाचाल’
गुरुग्राम महानगर
हरियाणा
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