आपकी सोच ही

( Aapki soch hi ) 

 

धाराओं मे बंटते रह जाने से
नाम मे कमी हो या न हो
महत्व घटे या न घटे,किंतु
प्रवाह के वेग मे
कमी आ ही जाती है…

अटल सत्य को काट नही सकते
थोथे चने मे आवाज घनी हो भले
किंतु,सामूहिक और व्यक्तिगत
दोनो मे समानता नहीं होती…

पत्ता पेड़ भी कहलाता है
अलग हो तो
झाड़ू से बुहारा भी जाता है
आप अकेले ही नही टूटते
पेड़ का एक अंग भी
क्षीण हो जाता है…..

एक प्रवाह मे सागर दूर नही होता
धाराओं मे हो तो बाष्पीकृत हो उसे शून्यता ही मिलती है…

आप अकेले ही
दुधमुहे से सामर्थ्यवान नही हुए
बेवफाई की आपकी सोच
कभी आपकी वफादार नही हो सकती
सोच ही व्यक्तित्व का निर्माण करती है..

 

मोहन तिवारी

 ( मुंबई )

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