Aashiqui
Aashiqui

आशिक़ी!

( Aashiqui )

(नज़्म )

( 3 ) 

बदलेगा मौसम मगर धीरे-धीरे,
उठेगी जवानी मगर धीरे-धीरे।
पिएंगे प्यासे उन आँखों से मय को,
चढ़ेगी नशा वो मगर धीरे-धीरे।

ढाएगी कयामत जमाने पे एकदिन,
बढ़ेगी बेताबी मगर धीरे-धीरे।
राह -ए -तलब में छोड़ेगी दिल को,
होगा आशिक़ी का असर धीरे-धीरे।

करेगी इनायत किसी न किसी पर,
लुटाएगी जान-ओ-जिगर धीरे-धीरे।
जुल्फों में गुजरेगी रातें किसी की,
उस रात होगी सहर धीरे-धीरे।

बेखुदी का आलम घेरेगा उसको,
चुभाएगी नश्तर मगर धीरे-धीरे।
नग्मों का उसपे जब पड़ेगा फुहारा,
जलेगा बदन वो मगर धीरे-धीरे।

उजड़े दिलों को बसाएगी फिर से,
घिरेगी घटा वो मगर धीरे-धीरे।
इनकार, इकरार, इजहार करेगी,
चलाएगी तीर-ए-नजर धीरे-धीरे।

होशवाले गंवाएँगे वो होश अपना,
चढ़ेगा जहर सर मगर धीरे-धीरे।
ख़ता की सजा तो मिलके रहेगी,
देगी दवा वो मगर धीरे-धीरे।

तरसते सितारे हैं बाहर वो निकले,
बदलेगी गेयर मगर धीरे-धीरे।
नेचर है उसका बहुत खुशमिजाजी,
करेगी शरारत मगर धीरे-धीरे।

नहीं है जवाब उस छलकती नजर का,
गिराएगी बिजली मगर धीरे-धीरे।
रस से भरा है सारा बदन वो,
रखेगी अधर पे अधर धीरे-धीरे।

( 2 )

बनके साक़ी मेरे पास आया करो,
जाम आँखों से मुझको पिलाया करो।
चुपके-चुपके न आँसू बहाना कभी,
मेरी सोई तलब तू जगाया करो।

आसमां से तू उतरी कोई हूर हो,
अपनी आँखें इधर भी बिछाया करो।
तेरे होंठों से बहती है देखो हँसी,
रखके होंठों पे मुझको सुलाया करो।

फूल खुशबू चुराते बदन से तेरे,
मेरे दिल के चमन में भी आया करो।
बोझ तन्हाई का तू उतारो सनम,
आके मेरी गली फिर न जाया करो।

चाँद-सूरज की दावत उड़ाती हो तुम,
मेरे घर पे भी खाने तो आया करो।
तुझको देखे बगैर नज़्म फुटती नहीं,
तू चंद उन बूँदों को टपकाया करो।

रोग कैसे मिटेगा विरह का मेरा,
उस उभरते बदन में छुपाया करो।
आँसू मेरा झलकता, टपकता नहीं,
अपने हाथों से इसको सुखाया करो।

कब के उलझे तसव्वुर में सपने मेरे,
उनपे उंगली जरा तू फिराया करो।
आशिक़ी का ये बिस्तर बिछा ही रहे,
हुस्न का बस दीया तू जलाया करो।

( 1 )

सुबह – शाम आँखें लड़ाने लगे हैं,
मेरे दिल पे देखो वो छाने लगे हैं।
उठती जवानी का हर कोई दीवाना,
सोई अंगन सुलगाने लगे हैं।

आई हूँ नजरों में मैं जब से उनके,
अपना ही घर वो भूलाने लगे हैं।
बार-बार दिल मेरा उनको ही चाहे,
ख्वाबों में भी आने -जाने लगे हैं।

नाजो-अदा मेरी भाती है उनको,
तलब आशिकी की बढ़ाने लगे हैं।
मुझे आदतन रूठने की बीमारी,
छाले वो पांव का दिखाने लगे हैं।

सलामत रहें उनकी साँसें जहां में,
मुझे टूटने से बचाने लगे हैं।
बड़ी चोट खाए थे मिलने से पहले,
मुझे अपनी ठोकर दिखाने लगे हैं।

पहचान मेरी वो एक दिन बनेंगे,
जुल्फों पे उँगली फिराने लगे हैं।
परदा हया का जो उठता नहीं था,
रफ़्ता -रफ्ता परदा उठाने लगे हैं।

 

रामकेश एम.यादव (रायल्टी प्राप्त कवि व लेखक),

मुंबई

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