Kavita | अबोध
अबोध
( Abodh )
बहुत अच्छा था बचपन अबोध,
नहीं था किसी बात का बोध।
जहाॅ॑ तक भी नजर जाती थी,
सूझता था सिर्फ आमोद -प्रमोद।
निश्छल मन क्या तेरा क्या मेरा,
मन लगे सदा जोगी वाला फेरा।
हर ग़म मुश्किल से थे अनजान
मन में होता खुशियों का डेरा।
हर किसी में देखे अपनापन,
चाहे बचपन या फिर पचपन।
हर किसी में दिखता था प्यार,
कितना सुंदर था अबोध बचपन।
जैसे बढ़े कदम बोध की ओर,
हर कुछ का समझने लगे छोर।
चला जीवन इक नई राह पर।
बस फिर क्या सोने पे सुहागा
समझे अपने ही सिर मौर।
काश़ के अनजान ही रहते,
नहीं होता ज्ञान अज्ञान ही रहते।
भेदभाव अपना पराया न होता,
सभी मन अपनेपन के गुलाम होते।