अनुभूति | Anubhooti
अनुभूति
( Anubhooti )
निशा थी नीरव था आकाश
नयन कब से अलसाये थे।
जान कर सोता हुआ मुझे
चले सपनों में आये थे।
हुई जो कुछ भी तुमसे बात,
उसे कब जान सकी थी रात,
गया था सारी सुधबुध भूल
हृदय को इतना भाये थे।
रहे थे जो अनगाये गीत
तुम्हें अर्पित कर गाये थे।
रही थी कैसी वह अनुभूति,
भरी भावों में भुवन विभूति,
शेष था नहीं कहीं भी शून्य
चतुर्दिशि तुम ही छाये थे।
तुम्हारा मधुर-मदिर रस-रूप
नयन पी कर न अघाये थे।
हुआ था जब निद्रा अवसान,
चेतना में था स्थिति भान,
अचानक देख लुटा संसार
प्राण कितना अकुलाये थे।
कहीं कुछ खुल ना जाये भेद
अश्रु पलकों में छिपाये थे।
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)