
भाग : 1
मैं बचपन से अंत: प्रवृति का व्यक्ति रहा हूं। जिसने बोल दिया तो बोल दिया मैं तो चुप रहना मैं ज्यादा धमाचौकड़ी भी नहीं करता था। हां लेकिन जब मुझे कोई परेशान करता था तो मैं उसकी धुनाई करने से भी बाज नहीं आता था ।
गांव में उस समय तक एक दूसरे के प्रति प्रेम भाव बहुत था। आपस में लोग एक दूसरे के सहयोगी थे ।पड़ोस में यदि कहीं कोई वारदात को भी जाती थी तो सभी आपस में मिलकर उसे निपटाने का प्रयास करते थे। गांव में पंचायत थी जिसका एक सरपंच चुना जाता था ।
जिसे चौधरी कहते थे ।एक प्रकार से ही वह गांव का मुखिया होता था ।गांव के छोटे-छोटे झगड़े वह खुद निपटा देते थे ।कोर्ट कचहरी बहुत कम लोग जाते थे।
शहरों में जहां यह भी नहीं मालूम के पड़ोस में कौन रहता है जबकि लोग वर्षों से रह रहे होते हैं ।वही गांव में लोगों को एक दूसरे की पूरी खबर रखते थे । कुछ भी बात हो जाए पूरा गांव उमड़ पड़ता था कि क्या बात हुई बच्चे बड़े का आदर करते थे गांव के बड़े बुजुर्ग यदि किसी को गलत रास्ते पर जाते देखते थे तो उसे रोकते थे । वे इसे अपनी जिम्मेदारी समझते थे ।अपने और पराएपन में ज्यादा भेदभाव नहीं वर्त्तते थे।
मैं अब अपने जन्म के समय की घटना बताता हूं ।जैसा कि मैंने मां एवं दीदी के मुख से कहते सुना था। मेरे जन्म के समय घर के हालात बहुत खराब थे। मेरा जब जन्म हुआ था तो मां को भूखे रह जाना पड़ा था । मैं भी सूखकर कांटा हो गया था ।मां को जब खाने को कुछ मिलता ही नहीं था तो दूध कहां से होता ।
मां अपनी चिंता को भुलाकर हर पल मेरी चिंता ही किया करती थी ।जबकि वह भी भूख के मारे तड़प रही थी । लेकिन भारत की माताओं की महानता को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता बल्कि केवल अनुभव किया जा सकता है।
पिताजी भी बीमार चल रहे थे तो कैसे कमा कर लाते ।
जब भी वे स्वस्थ होते थे तो गांव में गल्ले अनाज की खरीदारी करके अच्छी कमाई कर लेते थे। गांव में उन्हें सभी महिलाएं बड़कू कहती थी । जो कि गांव में यह शब्द श्रद्धा का सूचक था। मेरी बड़ी बहन सीता दीदी एक दिन घर के बाहर चुपके से रो रही थी।वह भी भूख के मारे तड़प रही थी ।
वैसे कुछ होता तो गांव में ही कोई मजदूरी करके कुछ कमा लातीं लेकिन घर में ऐसे हालात में सब को छोड़कर व कैसे जा सकती थीं । उस समय उनकी शादी हो चुकी थी । मुझे कहने में कोई शर्म नहीं महसूस होती कि मेरी बहन गांव में कटाई बुनाई करके घर का पालन पोषण करती रही ।
जब कभी घर में मेरे जन्म के समय के हालात की चर्चा होती थी तो सुनकर ही आंखों में आंसू आने लगते हैं। दीदी को जब सीसकते हुए गांव के मगरू काका ने देखा तो उससे पूछा कि बिटिया तू रो क्यों रही है । उनके प्रेम भरे इस पर से दीदी की शिसकिया और बढ़ गई । फिर रोते-रोते उन्होंने घर के हालात बताएं । दीदी की बातों को सुनकर मगरू काका ने दीदी को अपने घर से अनाज लाकर दिया। उनसे यह भी कहा कि आगे भी कभी जरूरत हो तो ले जाना।
इस प्रकार से दीदी उस अनाज को घर की चकिया में पीसकर रोटी बनाई। घर में सभी को खिलाई स्वयं खाईं ।लेकिन मेरी तबीयत ठीक नहीं हो रही थी। मां बताती है कि तेरे जन्म के समय मैंने कितने दुःख झेले तू क्या समझेगा ? मां के दुखों को समझा नहीं जा सकता केवल अनुभव किया जा सकता है ।
धीरे-धीरे महीना हो गए फिर भी मेरी आंख खुली नहीं। शरीर तो सूखकर कांटा हो गया था । लोगों ने आशंका जताई कि कहीं लड़का अंधा तो नहीं हो गया । कौन से देवी देवता पीर मजार नहीं होगी जहां मां पिताजी ने मनौतियां न मांगी होगी कि यह ठीक हो जाएगा तो मैं तेरा दर्शन करूंगी।
मेरे पिताजी घर के कुल देवता के रूप में गाजी मियां बड़े पुरुष की पूजा किया करते थे। मेरे गांव के अधिकांश इलाकों में कुल देवता के रूप में यही पूजें जातें हैं । उनकी मजार घर से 20 किलोमीटर की दूरी पर सिकंदरा में स्थित है। मुख्य मजार बहराइच जिले में हैं जहां भी वर्ष में एक बार विशाल मेला लगता और बड़ी संख्या में लोग जाते हैं।
पिताजी के शरीर पर जब गाजी मियां प्रकट होते थे तो कहते थे-‘ तेरे बच्चे को कुछ नहीं होगा तुम लोग घबराओ मत उसकी आंख भी सही सलामत है वह ठीक हो जाएगा ” । बाद में मैं धीरे-धीरे ठीक होने लगा । मेरी आंखों को कुछ नहीं हुआ । मैं वैसे तो टुकुर-टुकुर ताक रहा था परंतु दीदी बताती है कि तू इतना कमजोर हो गया था कि लोग देखना पसंद नहीं करते थे ।
गोद में लेने में भी परेशानी होती थी। मां तो बीमार थी इसलिए दोनों बहने ही झाड़-फूंक कराने ले जाते। लोग कहते बच्चे को जन्म लेते ही मर जाता तो अच्छा था । आज सब को परेशान कर रहा है। पता नहीं कैसी दुष्ट आत्मा पैदा हो गया ।कैसे कर्म किए होंगे ।
मेरे माता-पिता मुझे प्रभु का प्रसाद मानते हैं । विशेष रूप से कुलदेवता गाजी मियां पीर बाबा की और आज भी बड़ी शिद्दत के साथ उनकी पूजा की जाती है । बड़े भैया अक्सर जाते रहते हैं। उनकी मजार पर उनके प्रति गांव में अजीब किस्से मशहूर हैं कि वह जब खुश हो जाते हैं तो पानी के दीए जला देते हैं वह मालामाल हो जाता है यदि नाराज हो जाए तो उसे नष्ट होने से कोई नहीं बचा सकता।
गांव की महिलाएं विशेष रूप से यह सब घटनाएं सुनाते रहते हैं कि कैसे उनके घर में खाने को भी नहीं थी लेकिन आज देखो तो मोटर गाड़ी बनकर क्या नहीं है उनके पास।
मेरे शरीर में बचपन को इस बीमारी का सर आज भी दिखाई देता है मुझे कुछ कमजोरी अक्सर बनी रहती है मैं चाहे कितना भी अच्छा से अच्छा भोजन करो कहावत है कि दुख के चलते व्यक्ति भूल जाता परंतु अपने दुखों के छोड़ो को बड़ा सजो कर रखता है । मेरा परिवार आज भी संकट से गुजर रहा है बस संतोष इसी बात का है कि प्रभु प्रेम से एक रोटी दे देता है भूखे पेट सोने की नौबत जल्दी नहीं आती।
भाग : 2
जैसा कि मैंने बताया है मैं परिवार में अंतिम संतान के रूप में हूं ।इसलिए कुछ ज्यादा प्यार दुलार मिला ।मेरी प्रारंभिक शिक्षा गांव के ही तालाब के किनारे बगीचे में हुई है। वहां कोई कमरे नहीं बने थे बल्कि एकदम खुले में ही पढ़ाई होती थी ।मास्टरजी दूसरे गांव से आते थे। एक प्रकार से यह बगीचा दोनों गांव के मध्य में पड़ता था। ।
मेरे गांव का नाम नरई है। नरई एक प्रकार की घास होती है जो जल में उगती है । पतली सी सीक की भांति । उसके अंदर पानी पाया जाता है। मेरा गांव पूरी तरह से चारों ओर से तालाब पोखरो से घिरा है । बीच में गांव है । एक प्रकार से वह टीला है।बरसात के समय गांव के चारों तरफ जल ही जल दिखता है।
उस समय का नजारा कुछ ऐसा खुशनुमा बन जाता है कि जैसे लगता है कि कश्मीर की वादियां यहां आ गई हो। मेरा फोटो संसदीय क्षेत्र प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का माना जाता है यहीं से जीतकर पंडित जी प्रधानमंत्री बने थे । द्वितीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री भी फूलपुर से ही सांसद रह चुके हैं।
पंडित जी का एक वाक्या मैं सुनाना चाहूंगा जो कि मैंने लोगों के मुख से सुना है। जब पंडित जी फूलपुर से चुनाव लड़ रहे थे तो उनके विरोध में प्रयागराज के सुप्रसिद्ध संत प्रथम पूज्य प्रभु दत्त ब्रह्मचारी जी महाराज खड़े हो गए । हालांकि उनको राजनीति से कुछ लेना नहीं था । बस उनकी जिद थी कि भारत में गौ हत्या का प्रतिबंध लगाना होगा नहीं तो तुम्हें मैं जीतने नहीं दूंगा ।बाद में वे चुनाव हार गए परंतु पंडित जी भी उनका बहुत सम्मान करते थे ।
उनकी शर्तों को उस समय मान तो लिया लेकर राजनीति के गलियारे में लगता है उसे भूल से गए। आज भी गोवंश बड़ी मात्रा में काटे जा रहे हैं । एक दिन मैं मेरठ के कमीलो की बस्ती से गुजर रहा था तो देखा कि रक्त की धार जो नाले में बह रही है। उसे देखकर ह्रदय जैसे चीत्कार सा उठा । यह कैसा देश है कि जिस गोवंश की रक्षा के लिए स्वयं प्रभु कृष्ण ने अवतार लेकर गोवंश के साथ खेलें खाए उस की ऐसी दुर्दशा उनके देश में हो रही है ।
गोहत्या बंदी के न जाने कितने आंदोलन हुए परंतु नेताओं ने कुर्सी के लालच में हिंदुओं की भावनाओं की कद्र नहीं की ।सदा दोगली नीति अपनाई । शक्ति के साथ कानून पास कर दिया जाता तो कोई कारण नहीं कि गौ हत्या रुक ना जाती। अब हम फिर लौटते हैं अपने गांव की स्कूल की ओर ।
मुझे तो लगता है कि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के सपनों का था मेरा प्यारा बगीचे में बना स्कूल। गुरुदेव को कभी बंद कमरों में बैठकर पढ़ना अच्छा नहीं लगा । कमरों के अंदर उन्हें घुटन सी होती थी। यही कारण रहा है कि अपने सपनों को साकार करने के लिए उन्होंने शांति निकेतन की स्थापना प्रकृति के सानिध्य में किया।
जहां अध्ययन करने दुनिया की महान हस्तियां स्वयं आकर रहीं। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने शांतिनिकेतन में रहकर पढ़ाई की थी । संसार में एक से एक विद्यालय रहे होंगे परंतु शांतिनिकेतन जैसा दूसरा नहीं था । प्रकृति के सानिध्य में रहकर जो संस्कार हमारे अंदर आ सकता है उसे बंद कमरों में नहीं पाया जा सकता ।बगीचे के पास ही तालाब था ।
बरसात में अक्सर पानी भर जाता था तो मास्टर जी को बहुत घूम कर आना पड़ता था ।वहां पढ़ने का आनंद कुछ और था। उस सुख को घुटन भरे गाड़ियों की कड़वाहट के बीच पढ़ने वाले बच्चे केवल कल्पना भर कर सकते हैं । मेरे गांव में मुस्लिम भाई भी बहुत बड़ी संख्या में रहते हैं परंतु हिंदू और मुसलमानों के बीच कभी दंगे फसाद नहीं हुए। सभी बहुत मिलकर रहते हैं हमारे घर के पास ही हजारों वर्षों पुरानी बड़ी मस्जिद है जहां पर हर शुक्रवार को नमाज पढ़ने मुस्लिम भाई आते हैं ।
अब तो मस्जिद को तोड़ कर नए सिरे से उसका निर्माण करवा दिया गया है। ईद का त्यौहार हो या फिर होली का सभी मिलकर मनाते हैं। मैं भी में ताजिया मोहर्रम के समय मेला देखने जाया करता था । ताजिया निकालने के पहले दुलदुल घोड़ा निकलता था उसमें मुस्लिम बच्चों के साथ बड़ी मात्रा में हिंदू बच्चे भी शामिल होते थे ।
कभी ऐसा नहीं लगा कि हम सब अलग-अलग कौम के हैं। गांव में सब्बर मियां के यहां मुख्य रूप से ताजिया का निर्माण होता था। वह बहुत नेक दिल इंसान थे । अभी दो-तीन वर्ष पहले उनका देहांत हो गया । उनके अच्छे कर्मों की चर्चा आज भी गांव में होती है। उनका छोटा लड़का ज़ो कि मेरे साथ ही लेकिन दूसरे स्कूल में पढ़ता था ।
वह पढ़ने में बहुत तेज था। मैं भी कम नहीं था परंतु मेरे कभी ज्यादा नंबर नहीं रहे। मैंने कभी ज्यादा रटा नहीं बल्कि विषय को समझने का प्रयास किया। उसी के साथ मैंने भी इंजीनियरिंग की तैयारी की थी। परमात्मा को लगता है मुझसे और कुछ काम कराना था इसलिए वह सब छुड़वा दिया । आज भी गांव वालों को इस बात का मलाल है कि देखो फलाना का लड़का इंजीनियर हो गए ।
एक यह है कि पंडितों के चक्कर में पड़कर द्वारे द्वारे किताब बांटते फिरता है । मां आज भी अफसोस जताती है लेकिन होनी को कौन टाल सकता है जो होनी होती है वह होकर रहती है। जब मां मुझसे कहती है तो कि मैं यही उन्हें समझाने का प्रयास करता हूं कि देखो अम्मा! आज भले हमारे पास कुछ ज्यादा पैसा नहीं है परंतु उनको पहचानता कौन है? खाना-पीना पैसा कमाना फिर सब छोड़कर मर जाना क्या यह मात्र यही है जीवन का लक्ष्य। नहीं ना फिर ज्यादा सोक संताप करने से क्या फायदा?
भाग : 3
मुझसे बड़ी बहन अनीता और मैं एक ही क्लास में पढ़ते थे दीदी को पढ़ने लिखने की अपेक्षा चित्रकारी, कढ़ाई बुनाई ,सिलाई ज्यादा पसंद था। मेरी चारों बहनों में केवल अनीता दीदी मात्र आठवीं तक पढ़ सकीं हालांकि उनकी पढ़ने की बहुत इच्छा थी लेकिन परिस्थित बस उनकी इच्छा पूर्ण नहीं हो सकी।
गांव के स्कूल में पढ़ने के पश्चात प्राथमिक विद्यालय बाबूगंज में अपना नाम लिखवाया। गांव के बगीचे में जो पढ़ाई चल रही थी वह आगे सही तरह से प्रबंध नहीं होने के कारण बंद हो गई थी। बिना दूरदृष्टि के विद्यालय खोलकर चलाना बच्चों की जिंदगी से खिलवाड़ ही करना है।
मेरे पड़ोसी मनोज भाई ने तो कई जगहों से सरस्वती शिशु मंदिर खोले बच्चे भी आए फिर कमाई अच्छी ना होने के कारण यह किसी ने बताया कि वहां चल जाएगी तो वहां भी खोल दिया लेकिन सफल नहीं हुए। वैसे मनोज व्यक्तिगत रूप से बहुत ही नेक दिल इंसान हैं। पिछले तीन-चार वर्षो से उन्हें लकवा मार गया है जिसके कारण वे ठीक से बातचीत भी नहीं कर पा रहे हैं। अब वे कहीं आते-जाते नहीं हैं घर पर ही रहते हैं।
स्कूल खोलने में उनकी कोई कमी नहीं थी। बात यह है कि आजकल स्कूल खोलना दुकानदारी हो गई है । जिसमें प्रबंधक का एकमात्र उद्देश्य पैसा कमाना होता है । बच्चों की पढ़ाई लिखाई दूसरे नंबर पर आती है। जिनके पास पैसा है थोड़ी जमीन है उस पर छप्पर डालकर स्कूल खोल ले रहा है ।
चल गई तो ठीक नहीं चले तो उनका क्या जाता है बंद कर दो विद्यालय। ऐसी स्थिति में सबसे बड़ा नुकसान बच्चों के भविष्य का होता है जिसके कारण उनकी वर्षों का मेहनत मिट्टी में मिल जाती है।
मेरी जानकारी में ऐसे ना जाने कितने विद्यालय खोले और बंद किए गए। किसी का घर किराए पर लेकर कोई चला रहा है तो यदि विद्यालय चल गया तो मकान मालिक उसे कब्जियाने का प्रयास करता है । यदि प्रधानाचार्य प्रबंधक के पास कोई उचित व्यवस्था नहीं है तो विद्यालय बंद करने के अलावा कोई उपाय नहीं बचता।
इस प्रकार से खुलने वाले विद्यालयों में सबसे बड़ी दिक्कत बच्चों को होती है । अभिभावक भी परेशान की कहां पढ़ायें । किताबें जो खरीद ली गई हैं वह भी रद्दी की टोकरी में डाल दी जाने वाले हैं। क्योंकि उसे कोई नहीं पूछता। इसका कारण यह है कि प्राइवेट विद्यालयों की पुस्तकों के पाठ्यक्रम का कोई मापदंड नहीं है ।
सभी अपनी मनमर्जी से किताबें चलाते हैं। सभी विद्यालय प्रबंधन उसी की पुस्तक लगाने का प्रयास करता है जो ज्यादा कमीशन दे । बच्चों के हित की बात को सारा नजरअंदाज कर दिया जाता है। मुझे भी कुछ लोगों ने सलाह दी कि आप भी विद्यालय खोलकर प्रधानाचार्य बन जाइए। मैंने कहा इतने कम पैसे में खर्च कैसे चलेगा। तब उन्होंने सारा कमीशन खोरी का तामझाम समझाया फिर मैंने मना कर दिया है कि मुझसे नहीं होगा यह सब।
इंग्लिश मीडियम की स्कूलों की हालत तो पूछो ही मत। कुछ उंगली पर गिने जा सकने वाले विद्यालयों को छोड़कर सभी मात्र इंग्लिश के नाम पर खुलेआम लूट रहे हैं। अभिभावकों को इंग्लिश मीडियम पढ़ाने का जो पागलपन सवार है उसकी भरपूर कीमतें इंग्लिश मीडियम के स्कूल वसूलते हैं। इंग्लिश मीडियम पढ़ने वाले बच्चे अधिकांश ट्रांसलेटर ही बनकर के रह जाते हैं। विषयों की समझ उनमें नगण्य मात्र होती है।
इसका नतीजा यह हुआ कि बच्चों को दो कैटेगरी में बांट दिया गया है ।एक तो सामान्य प्राइमरी विद्यालयों में पढ़ने वाले जहां के अध्यापक /अध्यापिका के बच्चे । मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि कोई प्राइमरी की स्कूल का शिक्षक नहीं चाहेगा उसका बच्चा प्राइमरी में पढ़े।
हो सकता है कि हमारी बातें शत प्रतिशत सही ना हो लेकिन यही है भारतीय सरकारी विद्यालयों की सच्चाई। इसमें सुधार तब तक नहीं हो सकता जब तक की सभी सरकारी प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालय के अध्यापकों के बच्चों को अनिवार्य रूप से सरकारी विद्यालयों में शिक्षा के लिए बाध्य ना किया जाए।
इसका दूसरा कारण यह भी है कि प्राइमरी अध्यापकों से ही सरकार कभी वोटिंग तो कभी जनगणना ना जाने क्या से क्या कार करा रही है अब तो मिड डे मील ने तो विद्यालय को आश्रम बना दिया । जहां बच्चे मुफ्त का भंडारा खाने आते हैं। यह एक प्रकार से सरकारी कुटीर चाल है जिसे गरीबों के बच्चों को उनके शिक्षा के अधिकार का हनन किया जाता है ।दूसरी और प्राइवेट विद्यालय हैं जहां अध्यापकों से तो खूब काम लिया जाता लेकिन वेतन के रूप में कुछ पैसे देकर टरका दिया जाता है।
यह भारतीय शिक्षा व्यवस्था की विडंबना ही कही जाएगी कि प्राइवेट सरस्वती शिशु मंदिर या पब्लिक स्कूल के अध्यापकों के दुख को सुना जाए तो हृदय कांप जाएगा। यह बच्चों को ज्ञान देने वाले शिक्षकों को अपनी जरूरतों को पूरा करने तक के लिए जब पैसे नहीं है तो वह घर परिवार की आवश्यकता की पूर्ति कैसे करेगा?
ऐसे अध्यापकों को सारी जिंदगी कलम घिस्ते घिस्ते खत्म हो जाती है लेकिन अंत में लगता है कि जहां से शुरू किया था जिंदगी अभी वही की वही है। ऐसी स्थिति भारत के कुछ विद्यालयों को छोड़ दिया जाए तो सभी प्राइवेट विद्यालयों की है। जहां का शिक्षक अपनी आवश्यकता की पूर्ति अपने वेतन से कभी नहीं कर सकता।
सरकार को चाहिए कि प्राइवेट पब्लिक स्कूलों के अध्यापकों के लिए भी वेतन की एक स्कीम तैयार की जाए। जिस प्रकार से मजदूरों के लिए भी एक न्यूनतम मजदूरी निर्धारित है अध्यापकों को तो उससे भी कम गई गुजरी स्थित में वेतन मिल रहा है। आर्थिक रूप से कमजोर अध्यापक बच्चों को कैसे श्रेष्ठ शिक्षा दे सकता है इस पर चिंतन करने की आवश्यकता है।
शेष अगले अंक में
नोट – इस आत्मकथा में जो भी बातें कहीं गई है वह सार्वजनिक हैं। कोई भी शिक्षक व्यक्तिगत रूप से ना लें। शिक्षक समाज का दर्पण है। यदि कोई शिक्षक न्यूनतम वेतन में भी शिक्षण कार्य श्रेष्ठ तरीके से करा रहा है उससे महान इस दुनिया में कोई व्यक्ति नहीं हो सकता। इस देश की विडंबना ही कही जाएगी कि आज भी हजारों अध्यापक दैनिक मजदूरों से भी कम वेतन में शिक्षण कार्य करने को मजबूर हैं।
भाग : 4
प्राथमिक शिक्षण किसी भी व्यक्ति को जीवन निर्माण की नींव तैयार करता है। नींव जितनी कमजोर होगी तो भवन का निर्माण कैसे मजबूती से हो सकेगा? भारत सरकार उच्च शिक्षा पर तो अत्यधिक जोर दे रही है परंतु प्राथमिक कक्षाओं के शिक्षण का स्तर इतना घटिया दर्जे का है कि उसे भुक्तभोगी ही समझ सकता है।
विद्यालयों का कोई नियम ही नहीं होता । यदि ऐसा विद्यालय पिछड़ी तपको में है तो उसकी हालत और भी खस्ताहाल होगी। एक तो छोटे-छोटे बच्चे ज्यादा विरोध तो कर नहीं पाते हैं इसलिए ऐसे विद्यालयों में अध्यापकों की और मौज हो जाती है।
यही प्राथमिक कक्षाओं में जो बच्चे सताए जाते हैं वही बड़े होने पर अध्यापकों से जमकर बदला लेते हैं । ऐसे में बच्चों को यही कहा जाता है कि वह नालायक है, जो किसी की नहीं सुनते परंतु अध्यापकों को नहीं लगता कि इसकी जड़ कहीं न कहीं हमने ही बचपन में बोई थी जो आज जाकर फल फूल रही हैं। मैंने हैदर पब्लिक स्कूल, मेरठ में अध्ययन के दौरान अनुभव किया कि बड़े बच्चों को कितना भी मारा जाए वह किसी की नहीं सुनते।
शिक्षा पद्धति की यह बहुत बड़ी खामी है कि बच्चों को आज भी डंडे के बल पर हांका जा रहा है । कुछ अध्यापक तो बच्चों को पीटना अपना अधिकार समझते हैं। हाथ से तो ज्यादा नहीं मारते हैं क्योंकि चोट आ जाने का डर है परंतु मारने के लिए विशेष तौर से डंडा रखते हैं।
शहरी क्षेत्र की अपेक्षा गवई क्षेत्र में ज्यादा बच्चों की पिटाई होती है। उन्हें ऐसा मारा जाता है जैसे जानवरों को भी नहीं मारा जाता होगा। जो विद्यालय दादा टाइप के हैं उनकी तो पूछो ही मत। ऐसे विद्यालय में छात्र कितनी भी शिकायत करता रहे परंतु उसकी कोई नहीं सुनता ।यदि माता-पिता से कहता भी है, तो यही कहकर अभिभावक अपना पल्ला झाड़ लेते हैं कि तेरी ही गलती रही होगी और बच्चों को ही ऊपर से डांटते हैं ।
मैंने अनुभव किया है कि जो अध्यापक अपने घर परिवार के समस्याओं से ज्यादा परेशान होते हैं वही बच्चों को खूब मारते हैं। घर का सारा गुस्सा बच्चों पर उतार देते है।
मेरी प्राइमरी कक्षा के कुछ अध्यापक बच्चों को मारने में बहुत एक्सपर्ट थे । सभी का नाम तो नहीं पता लेकिन चेहरे जरूर याद है। एक थे- सत्यम मास्टर । गुस्सा आने पर पूछो ही मत । ऐसी धुनाई करते थे कि बच्चों की जान लेकर ही छोड़ते थे। दूसरे थे पंडित जी (नाम याद नहीं ) वह मारते तो कम थे , लेकिन जब पारा चढ़ जाता था तो वह भी आगे पीछे नहीं देखते थे और पिल पड़ते थे फट्टा लेकर । फिर बिना बच्चों का कचूमर निकल नहीं छोड़ते थे।
एक हरिजन जाति के गुरुजी थे ।वह एक दिन वह हम सब को समझाने लगे कि -“देखो बच्चों! सभी का शरीर चमड़ी से ही तो बना है इसलिए सभी चमार हैं । ना कोई ऊंचा है ना नीचा बल्कि परमात्मा ने सभी को सामान बनाकर ही इस दुनिया में भेजा है। इसलिए भेदभाव हमें नहीं कभी किसी से नहीं करना चाहिए। भेदभाव बरतना परमात्मा का अपमान करना है।
निम्न जाति का होने के कारण अक्सर उनका मजाक उड़ाया जाता लेकिन वह सबको नजर अंदाज करके अपने काम में लगे रहते । मानवीय एकता का पाठ पढ़ाना जैसे उनका एकमात्र उद्देश्य हो।
बड़े होने पर अनुभव करता हूं कि उनकी मार में भी प्रेम छुपा होता था। माता-पिता एवं गुरुजनों की मार जो व्यक्ति सह लेता है वही जीवन में एक महान इंसान बनता है।
आज हमारे सभी प्राथमिक विद्यालयों के अधिकांश शिक्षक नहीं है लेकिन उनके डांट डपट मार का प्रभाव है कि हम जीवन की सफलता के उच्चतम शिखर पर पहुंचा दिया ।
विद्यार्थी जीवन में अनुशासन का विशेष महत्व है। अनुशासित विद्यार्थी जीवन की सफलता प्राप्त कर सकता है।योग का प्राथमिक सूत्र भी अनुशासन है। जिस बच्चे को बचपन में अनुशासन बद्ध रखा जाता है उसका प्रभाव उसके संपूर्ण जीवन पर पड़ता है। अनुशासन के बिना जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता पाना मुश्किल है।
इसके बाद हमारा नाम कक्षा चार में अशर्फीलाल जायसवाल जूनियर हाई स्कूल में जो बाबूगंज बाजार के अंत में स्थित है लिखाया गया । वास्तव में देखा जाए हमारी शिक्षा का श्री गणेश यहीं से हुआ क्योंकि गांव के प्राथमिक विद्यालय में एक प्रकार से मेरा समय ही बर्बाद हुआ। मुझे ठीक से अक्षर ज्ञान भी नहीं हो पाया था।
यहां के एक अध्यापक थे श्री राम बहादुर गुरुजी जो की गणित पढ़ाते थे। वह गणित को खेल-खेल में ही समझा देते थे। उनका वरद हस्त आज भी हमें प्राप्त हो रहा है । जब भी घर जाता हूं तो उनसे जरूर मिलने का प्रयास करता हूं । वे ऐसी बातचीत करते हैं जैसे एक मित्र हों । वह हमारे एक अच्छे मार्गदर्शक की भांति थे । कोरोना काल में उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन उन्होंने जो प्रेम अपनत्व दिया वह आज भी हृदय की गहराइयों में अनुभव करता हूं।
राम सिंह गुरु जी संस्कृत पढ़ाया करते थे । वह एक छोटी सी छड़ी रखते थे ।नहीं आने पर पिटाई कर देते थे । मैं संस्कृत में बहुत कमजोर था। श्लोक वगैरा मुझे रटा नहीं जाते थे इसलिए अक्सर मैं पीट जाता था। लेकिन वह संस्कृत बहुत अच्छी तरह पढ़ाते थे ।
वह कहते हैं -“हमें संस्कृत भाषा का ज्ञान अवश्य करना चाहिए। जितने भी हमारे प्राचीन साहित्य हैं सभी संस्कृत में ही लिखे गए हैं ।मंत्र भी सभी संस्कृत में है। यदि तुम लोग संस्कृत नहीं पढ़े हुए हैं तो कैसे अपने प्राचीन धरोहर को बचा सकोगे।
बेटा जिस देश के नागरिक को अपनी संस्कृति सभ्यता से प्रेम नहीं होता उसे नष्ट होने से कोई नहीं बचा सकता । हमें संस्कृत पढ़ने लिखने एवं बोलने पर गर्व होना चाहिए।
आज सोचता हूं कि कितनी सत्य थी उनकी बात । आज पछताता हूं की कास अगर अच्छी तरह से संस्कृत पढ़ा होता तो बहुत प्रयास के बाद भी मैं सुर लय ताल के साथ वैदिक मंत्रों का उच्चारण कर पाता। गीता पाठ थोड़ा-थोड़ा कर लेता हूं।
महेंद्र प्रताप गुरु जी भूगोल पढ़ाते थे । वे स्कूल से सात आठ किलोमीटर साइकिल से आते थे। मैंने देखा कि आज भी साइकिल से ही आते हैं । वहीं के अधिकांश अध्यापक अब रिटायर हो चुके हैं ।
प्रधानाचार्य जी बहुत ही सज्जन व्यक्ति थे । वे जीवन की अंतिम समय तक प्रधानाचार्य रहे ।कुछ वर्षों पूर्व उनका देहांत हो जाने के पश्चात राम जियावन गुरु जी प्रधानाचार्य बने , उसके पश्चात राम बहादुर मास्टर साहब प्रधानाचार्य बने, उसके बाद राम सिंह मास्टर साहब प्रधानाचार्य बने वर्तमान समय में सभी अध्यापक रिटायर्ड हो चुके हैं।
प्रधानाचार्य जी द्वारा बताया गया अंधविश्वासों के प्रति एक किस्सा आज भी याद आता है ।वह एक बार बच्चों से कहने लगे कि -“आज मैं भूत प्रेत पैदा करने की दवाई बताता हूं ।”
फिर वह कहने लगे -“देखो जिस रास्ते से स्त्रियां प्रातः काल शौच जाती हैं उसी चौराहे पर तुम एक लोटा में जल लेकर उसमें फूल माला डाल दो और वहीं पर जल डालकर ऊपर से फूल चढ़ा दो माला चढ़ा दो नींबू काट दो तो तुम देखोगे कि सुबह 10:20 औरतें भूत से ग्रसित मिलेंगी ।जिस भी स्त्री का पैर उस पर पड़ेगा वह बीमार हो जाएगी।”
उन्होंने बताया कि ऐसा इसलिए होता है कि -“उनके मन में एक भय बैठ जाता है कि कोई निकारी कर दिया है ।इस डर से वह बीमार पड़ जाती हैं।”
उन्होंने आगे बताया कि -“भूत प्रेत नाम की कोई चीज नहीं होती है । जब कोई व्यक्ति वहां से निकलता है तो उसके मन-मस्तिष्क भय व्याप्त हो जाता है। यदि बच्चों को बचपन से ही इस प्रकार के वहम से दूर रखा जाए तो वह एक स्वस्थ नागरिक बन सकते हैं।
विद्यालय में शौकत अली गुरुजी थे जो की बहुत अच्छा पढ़ाते थे ।मुस्लिम होते हुए भी वे हनुमान जी के भक्त हैं और हर रविवार को अपने घर में छुआ मंतर भी करते हैं ।जिसमें बहुत सी स्त्री पुरुष उनके यहां भूत प्रेत उतारने के लिए आती हैं ।ऐसा वे बहुत सालों से कर रहे हैं।
विद्यालय में एक चपरासी राम आधार यादव जी थे जो की अंतिम समय तक वहां चपरासी थे ।वह भी एक बहुत दिल नेक इंसान थे।
इस विद्यालय को कोई सरकारी अनुदान नहीं मिलता था। प्रबंधक भी कभी विद्यालय के विकास के बारे में नहीं सोचा। यही कारण रहा है कि जिस प्रकार से पिछले 25- 30 वर्षों पूर्व विद्यालय था आज भी उसी हालत में है । एक भी कमरे का निर्माण नहीं हो सका है आज तक।
सच्चे अर्थों में देखा जाए तो इसे कहते हैं तपस्वी का जीवन। जीना । घर परिवार छोड़कर घने जंगल में तपस्या करने की अपेक्षा अभाव में रहते हुए बच्चों को जीवन निर्माण की कला सीखलाना क्या किसी तपस्या से कम है।
एक दिन राम जियावन गुरुजी चर्चा करते हुए बताया कि -“मेरी पत्नी रोज लड़ती की कौन सा स्कूल में फूल चुवत है जो तुम छोड़ नहीं देते । सारी जिंदगी कलम घिस्ते बीत गए। सर के सारे बाल सफेद हो गए लेकिन क्या मिला तुम्हें ।तो पढ़ाने का नशा सवार है ।कभी इन बाल बच्चों का भी ख्याल रखा होता।”
उन्होंने बताया कि घर में खेती बाड़ी का काम कर लेने के कारण जिंदगी कट जा रही थी। हालांकि आज जाकर विद्यालय को सरकारी अनुदान मिलने लगा है परंतु सारी जवानी तो खत्म हो गए।
आज की व्यावसायिक विद्यालयों को सीख लेनी चाहिए कि दुनिया में आज भी त्यागी तपस्वी शिक्षक हैं जिनकी बदौलत शिक्षा की गरिमा बनी हुई है।
भाग-5
हमने गांव में रहते हुए अनुभव किया कि महिलाएं पुरुष की अपेक्षा ज्यादा व्रत- उपवास रखती हैं । मेरी मां भी कई वर्षों से मंगलवार रखती रहीं । इसके अलावा पूर्णिमा ,एकादशी, अमावस , नवरात्रि आदि भी वह बहुत नियम से रखती।
अक्सर वह दिन भर भूखी रह जाती है। दिनभर काम भी घर के सारे करतीं ।यदि बड़े भैया फल नहीं ले तो चाय पीकर ही सो जाती परंतु किसी प्रकार की कोई शिकायत नहीं करती।
मां के संस्कारों का ही प्रभाव है कि हम सभी भाई-बहन कोई ना कोई व्रत उपवास करते रहे हैं। सद्गुरु ओशो कहते हैं कि मनुष्य को समृद्धशाली होना चाहिए । जिस व्यक्ति के मन में धन के उपभोग के प्रति वितृष्णा उत्पन्न नहीं हो जाती है उसे कोई महान वस्तु साधना उपासना से नहीं मिलने वाली। वह भगवान से मांगेगा भी तो धन दौलत बेटा बेटी ही मांगेगा।
मां भी भगवान के सामने यही कामना करती कि घर में सुख शांति हो, आर्थिक समृद्धि हो, घर में आर्थिक अभाव सदैव बना रहा। घर में कमाई का कोई बड़ा जरिया नहीं था । रोज कुआं खोदो और रोज पानी पियो जैसी स्थिति रही ।
भैया जो अनाज खरीदते थे उसे तुरंत बेच देते थे। उसी से जो भी पैसा मिला बाजार से सब्जी वगैरह लाने में खर्च हो जाते थे । भैया का बैंक में खाता खुलवाने के पश्चात भी उसमें एक पैसा नहीं जमा कर सके आखिर जब बचे तब तो जमा करें ना।
बचपन से गरीबी क्या होती है इसका अनुभव मैं बहुत नजदीक से किया। मेरा घर मिट्टी एवं खपरैल का बना बहुत पुराना था । बरसात में पानी टपकने से घर पानी से भर जाता। कभी-कभी दीवारें फट जाती ।एक दिन बरसात में तो घर की दीवार का पिछला हिस्सा गिर गया सारा पानी पूरे घर में भर गया। किसी तरह बरसात रुकने पर पानी को बाहर फेंका जा सका।
घर की दीवार क्या गिरना शुरू हुई कि धीरे-धीरे पूरा घर ही गिर गया । घर में तो बचत के कोई पैसे थे नहीं की अपना नया घर बनाया जा सके इसीलिए भैया ने एक बास को काटकर प्लास्टिक के पनियों द्वारा छोटी सी मढ़िया बना दिया ।
अब वही परिवार के सारे लोगों के आराम गाह बन गए। प्रभु की क्या लीला है वही जाने। कहते हैं विपत्ति जब आती है तो चारों ओर से आती है । इसी बीच मझले भैया ने बैंक से कुछ कर्ज ले लिया था । कर्ज लेते समय उन्होंने किसी को घर में नहीं बताया।
पैसे को जहां भी लगाया सारा का सारा डूब गया। कुछ लोगों ने ले लिया तो दिया ही नहीं। उन्होंने कर्ज की कोई किस्त भी नहीं भरी थी । उसकी जब इंक्वारी आए तो घर की इज्जत बची रहे भैया को दिक्कत ना हो खेत को गिरवी रखकर सारे कर्ज चुका दिए गए।
खेत का एक हिस्सा मेरे हरिद्वार में अध्ययन के दौरान पैसा ना रहने पर रखा जा चुका था ।अब तो सारा खेती गिरवी हो चुका था। खेत था तो इस बात की चिंता नहीं करनी पड़ती थी कि क्या खाया जाएगा। खाने की चीज खेत में उगा ली जाती थीं ।साथ ही मां भाभी लोग उसी में व्यस्त रहती थीं।
गरीब आदमी हर तरफ से मारा जाता है।
अमीरों को कुछ नहीं कहता। लाखों करोड़ों करोड़ रुपए अमीर डकार कर विदेश भाग जाते हैं और सरकारें भी अमीरों का ही साथ देते हैं । एक प्रकार से देखा जाए तो सरकारें अमीरों की गुलाम होती हैं। उन्हें डिफॉल्ट दिखाकर अधिकांश उनका कर्ज माफ भी कर दिया जाता है।
वही गरीबों की जान की आफत आ जाती है । यही कारण है कि बहुत से किसान , मजदूर आदि कृषि में घाटा लगने पर आत्महत्या तक कर लेते हैं। ऐसी स्थिति में मां के धैर्य को दाद देनी पड़ेगी। किस प्रकार से इतनी विपरीत परिस्थितियों के बीच परिवार को चला रही थी यह उन्हीं से सीखा जा सकता है।
मुझे लगता है कि मां जरूर पूर्व जन्मों की कोई दिव्य आत्मा रही है। उनका तो संपूर्ण जीवन ही जैसे दुखों की कहानी है । जिंदगी का सुख क्या होता है जैसे उन्होंने जाना ही नहीं। पिताजी की मृत्यु के बाद उनको सुख की एक रोटी कभी नहीं मिल सकीं।
अब सोचिए जिसका सारा खेत गिरवी पड़ा हो, घर गिर गया हो, मढ़ैया बनाकर उसमें वह यायावर की तरह सरण लिया हो उसकी सुख क्या मिल सकता है? कभी-कभी तो उन्हें घर पर अकेले रह जाना पड़ता था । मन में आया तो बना कर खा लिया नहीं तो वैसे ही सो गई।
प्रभु का शुक्रगुजार है कि घर के पास ही प्राथमिक विद्यालय है। जब कोई मेहमान आता तो उन्हें स्कूल में ही रोकना पड़ता। कभी-कभी तो नए मेहमान आना चाहते हैं उन्हें घर पर बुलाने में शर्म सी महसूस होती है ।उन्हें कैसे बुलाए।
अधिकांश लोगों को कोई न कोई बहाना बता कर टाल दिया जाता। बच्चे भी बड़े हो रहे थे । बड़े भैया जहां रहते थे वहां पत्थर तोड़ने वाले बाहर के घुमंतू लोग रहते थे। वह दिन रात लड़ते झगड़ते थे ।गंदी-गंदी गाली भी बकते थे। उनके बच्चे भी उसी प्रकार हैं महिलाएं भी नशेड़ी है पुरुष तो नशा करते ही हैं।
उस समय बड़े भैया की बेटी की शादी नहीं हुई थी। भैया को बेटी की शादी की चिंता सताए जा रहे थी। भगवान का शुक्रगुजार है क्या एक अच्छा रिश्ता मिला और बेटी की शादी एक अच्छे परिवार में हो गई। जो आज एक खुशहाल जिंदगी जी रही हैं।
शेष अगले अंक में
योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )