एक शिक्षक की आत्मकथा
एक शिक्षक की आत्मकथा

भाग : 1

मैं बचपन से अंत: प्रवृति का व्यक्ति रहा हूं। जिसने बोल दिया तो बोल दिया मैं तो चुप रहना मैं ज्यादा धमाचौकड़ी भी नहीं करता था। हां लेकिन जब मुझे कोई परेशान करता था तो मैं उसकी धुनाई करने से भी बाज नहीं आता था ।

गांव में उस समय तक एक दूसरे के प्रति प्रेम भाव बहुत था। आपस में लोग एक दूसरे के सहयोगी थे ।पड़ोस में यदि कहीं कोई वारदात को भी जाती थी तो सभी आपस में मिलकर उसे निपटाने का प्रयास करते थे। गांव में पंचायत थी जिसका एक सरपंच चुना जाता था ।

जिसे चौधरी कहते थे ।एक प्रकार से ही वह गांव का मुखिया होता था ।गांव के छोटे-छोटे झगड़े वह खुद निपटा देते थे ।कोर्ट कचहरी बहुत कम लोग जाते थे।

शहरों में जहां यह भी नहीं मालूम के पड़ोस में कौन रहता है जबकि लोग वर्षों से रह रहे होते हैं ।वही गांव में लोगों को एक दूसरे की पूरी खबर रखते थे । कुछ भी बात हो जाए पूरा गांव उमड़ पड़ता था कि क्या बात हुई बच्चे बड़े का आदर करते थे गांव के बड़े बुजुर्ग यदि किसी को गलत रास्ते पर जाते देखते थे तो उसे रोकते थे । वे इसे अपनी जिम्मेदारी समझते थे ।अपने और पराएपन में ज्यादा भेदभाव नहीं वर्त्तते थे।

मैं अब अपने जन्म के समय की घटना बताता हूं ।जैसा कि मैंने मां एवं दीदी के मुख से कहते सुना था। मेरे जन्म के समय घर के हालात बहुत खराब थे। मेरा जब जन्म हुआ था तो मां को भूखे रह जाना पड़ा था । मैं भी सूखकर कांटा हो गया था ।मां को जब खाने को कुछ मिलता ही नहीं था तो दूध कहां से होता ।

मां अपनी चिंता को भुलाकर हर पल मेरी चिंता ही किया करती थी ।जबकि वह भी भूख के मारे तड़प रही थी । लेकिन भारत की माताओं की महानता को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता बल्कि केवल अनुभव किया जा सकता है।
पिताजी भी बीमार चल रहे थे तो कैसे कमा कर लाते ।

जब भी वे स्वस्थ होते थे तो गांव में गल्ले अनाज की खरीदारी करके अच्छी कमाई कर लेते थे। गांव में उन्हें सभी महिलाएं बड़कू कहती थी । जो कि गांव में यह शब्द श्रद्धा का सूचक था। मेरी बड़ी बहन सीता दीदी एक दिन घर के बाहर चुपके से रो रही थी।वह भी भूख के मारे तड़प रही थी ।

वैसे कुछ होता तो गांव में ही कोई मजदूरी करके कुछ कमा लातीं लेकिन घर में ऐसे हालात में सब को छोड़कर व कैसे जा सकती थीं । उस समय उनकी शादी हो चुकी थी । मुझे कहने में कोई शर्म नहीं महसूस होती कि मेरी बहन गांव में कटाई बुनाई करके घर का पालन पोषण करती रही ।

जब कभी घर में मेरे जन्म के समय के हालात की चर्चा होती थी तो सुनकर ही आंखों में आंसू आने लगते हैं। दीदी को जब सीसकते हुए गांव के मगरू काका ने देखा तो उससे पूछा कि बिटिया तू रो क्यों रही है । उनके प्रेम भरे इस पर से दीदी की शिसकिया और बढ़ गई ।

फिर रोते-रोते उन्होंने घर के हालात बताएं । दीदी की बातों को सुनकर मगरू काका ने दीदी को अपने घर से अनाज लाकर दिया। उनसे यह भी कहा कि आगे भी कभी जरूरत हो तो ले जाना।

इस प्रकार से दीदी उस अनाज को घर की चकिया में पीसकर रोटी बनाई। घर में सभी को खिलाई स्वयं खाईं ।लेकिन मेरी तबीयत ठीक नहीं हो रही थी। मां बताती है कि तेरे जन्म के समय मैंने कितने दुःख झेले तू क्या समझेगा ? मां के दुखों को समझा नहीं जा सकता केवल अनुभव किया जा सकता है ।

धीरे-धीरे महीना हो गए फिर भी मेरी आंख खुली नहीं। शरीर तो सूखकर कांटा हो गया था । लोगों ने आशंका जताई कि कहीं लड़का अंधा तो नहीं हो गया । कौन से देवी देवता पीर मजार नहीं होगी जहां मां पिताजी ने मनौतियां न मांगी होगी कि यह ठीक हो जाएगा तो मैं तेरा दर्शन करूंगी।

मेरे पिताजी घर के कुल देवता के रूप में गाजी मियां बड़े पुरुष की पूजा किया करते थे। मेरे गांव के अधिकांश इलाकों में कुल देवता के रूप में यही पूजें जातें हैं । उनकी मजार घर से 20 किलोमीटर की दूरी पर सिकंदरा में स्थित है। मुख्य मजार बहराइच जिले में हैं जहां भी वर्ष में एक बार विशाल मेला लगता और बड़ी संख्या में लोग जाते हैं।

पिताजी के शरीर पर जब गाजी मियां प्रकट होते थे तो कहते थे-‘ तेरे बच्चे को कुछ नहीं होगा तुम लोग घबराओ मत उसकी आंख भी सही सलामत है वह ठीक हो जाएगा ” । बाद में मैं धीरे-धीरे ठीक होने लगा । मेरी आंखों को कुछ नहीं हुआ । मैं वैसे तो टुकुर-टुकुर ताक रहा था परंतु दीदी बताती है कि तू इतना कमजोर हो गया था कि लोग देखना पसंद नहीं करते थे ।

गोद में लेने में भी परेशानी होती थी। मां तो बीमार थी इसलिए दोनों बहने ही झाड़-फूंक कराने ले जाते। लोग कहते बच्चे को जन्म लेते ही मर जाता तो अच्छा था । आज सब को परेशान कर रहा है। पता नहीं कैसी दुष्ट आत्मा पैदा हो गया ।कैसे कर्म किए होंगे ।

मेरे माता-पिता मुझे प्रभु का प्रसाद मानते हैं । विशेष रूप से कुलदेवता गाजी मियां पीर बाबा की और आज भी बड़ी शिद्दत के साथ उनकी पूजा की जाती है । बड़े भैया अक्सर जाते रहते हैं। उनकी मजार पर उनके प्रति गांव में अजीब किस्से मशहूर हैं कि वह जब खुश हो जाते हैं तो पानी के दीए जला देते हैं वह मालामाल हो जाता है यदि नाराज हो जाए तो उसे नष्ट होने से कोई नहीं बचा सकता।

गांव की महिलाएं विशेष रूप से यह सब घटनाएं सुनाते रहते हैं कि कैसे उनके घर में खाने को भी नहीं थी लेकिन आज देखो तो मोटर गाड़ी बनकर क्या नहीं है उनके पास।

मेरे शरीर में बचपन को इस बीमारी का सर आज भी दिखाई देता है मुझे कुछ कमजोरी अक्सर बनी रहती है मैं चाहे कितना भी अच्छा से अच्छा भोजन करो कहावत है कि दुख के चलते व्यक्ति भूल जाता परंतु अपने दुखों के छोड़ो को बड़ा सजो कर रखता है । मेरा परिवार आज भी संकट से गुजर रहा है बस संतोष इसी बात का है कि प्रभु प्रेम से एक रोटी दे देता है भूखे पेट सोने की नौबत जल्दी नहीं आती।

भाग : 2

जैसा कि मैंने बताया है मैं परिवार में अंतिम संतान के रूप में हूं ।इसलिए कुछ ज्यादा प्यार दुलार मिला ।मेरी प्रारंभिक शिक्षा गांव के ही तालाब के किनारे बगीचे में हुई है। वहां कोई कमरे नहीं बने थे बल्कि एकदम खुले में ही पढ़ाई होती थी ।मास्टरजी दूसरे गांव से आते थे। एक प्रकार से यह बगीचा दोनों गांव के मध्य में पड़ता था। ‌। ‌

मेरे गांव का नाम नरई है। नरई एक प्रकार की घास होती है जो जल में उगती है । पतली सी सीक की भांति । उसके अंदर पानी पाया जाता है। मेरा गांव पूरी तरह से चारों ओर से तालाब पोखरो से घिरा है । बीच में गांव है । एक प्रकार से वह टीला है।बरसात के समय गांव के चारों तरफ जल ही जल दिखता है।

उस समय का नजारा कुछ ऐसा खुशनुमा बन जाता है कि जैसे लगता है कि कश्मीर की वादियां यहां आ गई हो। ‌ मेरा फोटो संसदीय क्षेत्र प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का माना जाता है यहीं से जीतकर पंडित जी प्रधानमंत्री बने थे । द्वितीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री भी फूलपुर से ही सांसद रह चुके हैं।

पंडित जी का एक वाक्या मैं सुनाना चाहूंगा जो कि मैंने लोगों के मुख से सुना है। ‌ जब पंडित जी फूलपुर से चुनाव लड़ रहे थे तो उनके विरोध में प्रयागराज के सुप्रसिद्ध संत प्रथम पूज्य प्रभु दत्त ब्रह्मचारी जी महाराज खड़े हो गए । हालांकि उनको राजनीति से कुछ लेना नहीं था । बस उनकी जिद थी कि भारत में गौ हत्या का प्रतिबंध लगाना होगा नहीं तो तुम्हें मैं जीतने नहीं दूंगा ।बाद में वे चुनाव हार गए परंतु पंडित जी भी उनका बहुत सम्मान करते थे ।

उनकी शर्तों को उस समय मान तो लिया लेकर राजनीति के गलियारे में लगता है उसे भूल से गए। ‌ आज भी गोवंश बड़ी मात्रा में काटे जा रहे हैं । एक दिन मैं मेरठ के कमीलो की बस्ती से गुजर रहा था तो देखा कि रक्त की धार जो नाले में बह रही है। उसे देखकर ह्रदय जैसे चीत्कार सा उठा । यह कैसा देश है कि जिस गोवंश की रक्षा के लिए स्वयं प्रभु कृष्ण ने अवतार लेकर गोवंश के साथ खेलें खाए उस की ऐसी दुर्दशा उनके देश में हो रही है ।

गोहत्या बंदी के न जाने कितने आंदोलन हुए परंतु नेताओं ने कुर्सी के लालच में हिंदुओं की भावनाओं की कद्र नहीं की ।सदा दोगली नीति अपनाई । शक्ति के साथ कानून पास कर दिया जाता तो कोई कारण नहीं कि गौ हत्या रुक ना जाती। अब हम फिर लौटते हैं अपने गांव की स्कूल की ओर ।

मुझे तो लगता है कि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के सपनों का था मेरा प्यारा बगीचे में बना स्कूल। गुरुदेव को कभी बंद कमरों में बैठकर पढ़ना अच्छा नहीं लगा । कमरों के अंदर उन्हें घुटन सी होती थी। यही कारण रहा है कि अपने सपनों को साकार करने के लिए उन्होंने शांति निकेतन की स्थापना प्रकृति के सानिध्य में किया।

जहां अध्ययन करने दुनिया की महान हस्तियां स्वयं आकर रहीं। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने शांतिनिकेतन में रहकर पढ़ाई की थी । ‌ संसार में एक से एक विद्यालय रहे होंगे परंतु शांतिनिकेतन जैसा दूसरा नहीं था । प्रकृति के सानिध्य में रहकर जो संस्कार हमारे अंदर आ सकता है उसे बंद कमरों में नहीं पाया जा सकता ।बगीचे के पास ही तालाब था ।

बरसात में अक्सर पानी भर जाता था तो मास्टर जी को बहुत घूम कर आना पड़ता था ।वहां पढ़ने का आनंद कुछ और था। उस सुख को घुटन भरे गाड़ियों की कड़वाहट के बीच पढ़ने वाले बच्चे केवल कल्पना भर कर सकते हैं ।

मेरे गांव में मुस्लिम भाई भी बहुत बड़ी संख्या में रहते हैं परंतु हिंदू और मुसलमानों के बीच कभी दंगे फसाद नहीं हुए। सभी बहुत मिलकर रहते हैं हमारे घर के पास ही हजारों वर्षों पुरानी बड़ी मस्जिद है जहां पर हर शुक्रवार को नमाज पढ़ने मुस्लिम भाई आते हैं ।

अब तो मस्जिद को तोड़ कर नए सिरे से उसका निर्माण करवा दिया गया है। ईद का त्यौहार हो या फिर होली का सभी मिलकर मनाते हैं। मैं भी में ताजिया मोहर्रम के समय मेला देखने जाया करता था । ताजिया निकालने के पहले दुलदुल घोड़ा निकलता था उसमें मुस्लिम बच्चों के साथ बड़ी मात्रा में हिंदू बच्चे भी शामिल होते थे ।

कभी ऐसा नहीं लगा कि हम सब अलग-अलग कौम के हैं। गांव में सब्बर मियां के यहां मुख्य रूप से ताजिया का निर्माण होता था। वह बहुत नेक दिल इंसान थे । अभी दो-तीन वर्ष पहले उनका देहांत हो गया । उनके अच्छे कर्मों की चर्चा आज भी गांव में होती है। उनका छोटा लड़का ज़ो कि मेरे साथ ही लेकिन दूसरे स्कूल में पढ़ता था ।

वह पढ़ने में बहुत तेज था। मैं भी कम नहीं था परंतु मेरे कभी ज्यादा नंबर नहीं रहे। मैंने कभी ज्यादा रटा नहीं बल्कि विषय को समझने का प्रयास किया। उसी के साथ मैंने भी इंजीनियरिंग की तैयारी की थी। परमात्मा को लगता है मुझसे और कुछ काम कराना था इसलिए वह सब छुड़वा दिया । आज भी गांव वालों को इस बात का मलाल है कि देखो फलाना का लड़का इंजीनियर हो गए ।

एक यह है कि पंडितों के चक्कर में पड़कर द्वारे द्वारे किताब बांटते फिरता है । मां आज भी अफसोस जताती है लेकिन होनी को कौन टाल सकता है जो होनी होती है वह होकर रहती है। जब मां मुझसे कहती है तो कि मैं यही उन्हें समझाने का प्रयास करता हूं कि देखो अम्मा! आज भले हमारे पास कुछ ज्यादा पैसा नहीं है परंतु उनको पहचानता कौन है? खाना-पीना पैसा कमाना फिर सब छोड़कर मर जाना क्या यह मात्र यही है जीवन का लक्ष्य। नहीं ना फिर ज्यादा सोक संताप करने से क्या फायदा? ‌‌

भाग : 3

 

मुझसे बड़ी बहन अनीता और मैं एक ही क्लास में पढ़ते थे दीदी को पढ़ने लिखने की अपेक्षा चित्रकारी, कढ़ाई बुनाई ,सिलाई ज्यादा पसंद था। मेरी चारों बहनों में केवल अनीता दीदी मात्र आठवीं तक पढ़ सकीं हालांकि उनकी पढ़ने की बहुत इच्छा थी लेकिन परिस्थित बस उनकी इच्छा पूर्ण नहीं हो सकी।

गांव के स्कूल में पढ़ने के पश्चात प्राथमिक विद्यालय बाबूगंज में अपना नाम लिखवाया। गांव के बगीचे में जो पढ़ाई चल रही थी वह आगे सही तरह से प्रबंध नहीं होने के कारण बंद हो गई थी। बिना दूरदृष्टि के विद्यालय खोलकर चलाना बच्चों की जिंदगी से खिलवाड़ ही करना है।

मेरे पड़ोसी मनोज भाई ने तो कई जगहों से सरस्वती शिशु मंदिर खोले बच्चे भी आए फिर कमाई अच्छी ना होने के कारण यह किसी ने बताया कि वहां चल जाएगी तो वहां भी खोल दिया लेकिन सफल नहीं हुए। वैसे मनोज व्यक्तिगत रूप से बहुत ही नेक दिल इंसान हैं। पिछले तीन-चार वर्षो से उन्हें लकवा मार गया है जिसके कारण वे ठीक से बातचीत भी नहीं कर पा रहे हैं। अब वे कहीं आते-जाते नहीं हैं घर पर ही रहते हैं।

स्कूल खोलने में उनकी कोई कमी नहीं थी। बात यह है कि आजकल स्कूल खोलना दुकानदारी हो गई है । जिसमें प्रबंधक का एकमात्र उद्देश्य पैसा कमाना होता है । बच्चों की पढ़ाई लिखाई दूसरे नंबर पर आती है। जिनके पास पैसा है थोड़ी जमीन है उस पर छप्पर डालकर स्कूल खोल ले रहा है ।

चल गई तो ठीक नहीं चले तो उनका क्या जाता है बंद कर दो विद्यालय। ऐसी स्थिति में सबसे बड़ा नुकसान बच्चों के भविष्य का होता है जिसके कारण उनकी वर्षों का मेहनत मिट्टी में मिल जाती है।

मेरी जानकारी में ऐसे ना जाने कितने विद्यालय खोले और बंद किए गए। किसी का घर किराए पर लेकर कोई चला रहा है तो यदि विद्यालय चल गया तो मकान मालिक उसे कब्जियाने का प्रयास करता है । यदि प्रधानाचार्य प्रबंधक के पास कोई उचित व्यवस्था नहीं है तो विद्यालय बंद करने के अलावा कोई उपाय नहीं बचता।

इस प्रकार से खुलने वाले विद्यालयों में सबसे बड़ी दिक्कत बच्चों को होती है । अभिभावक भी परेशान की कहां पढ़ायें । किताबें जो खरीद ली गई हैं वह भी रद्दी की टोकरी में डाल दी जाने वाले हैं। क्योंकि उसे कोई नहीं पूछता। इसका कारण यह है कि प्राइवेट विद्यालयों की पुस्तकों के पाठ्यक्रम का कोई मापदंड नहीं है ।

सभी अपनी मनमर्जी से किताबें चलाते हैं। सभी विद्यालय प्रबंधन उसी की पुस्तक लगाने का प्रयास करता है जो ज्यादा कमीशन दे । बच्चों के हित की बात को सारा नजरअंदाज कर दिया जाता है। मुझे भी कुछ लोगों ने सलाह दी कि आप भी विद्यालय खोलकर प्रधानाचार्य बन जाइए। मैंने कहा इतने कम पैसे में खर्च कैसे चलेगा। तब उन्होंने सारा कमीशन खोरी का तामझाम समझाया फिर मैंने मना कर दिया है कि मुझसे नहीं होगा यह सब।

इंग्लिश मीडियम की स्कूलों की हालत तो पूछो ही मत। कुछ उंगली पर गिने जा सकने वाले विद्यालयों को छोड़कर सभी मात्र इंग्लिश के नाम पर खुलेआम लूट रहे हैं।

अभिभावकों को इंग्लिश मीडियम पढ़ाने का जो पागलपन सवार है उसकी भरपूर कीमतें इंग्लिश मीडियम के स्कूल वसूलते हैं। इंग्लिश मीडियम पढ़ने वाले बच्चे अधिकांश ट्रांसलेटर ही बनकर के रह जाते हैं। विषयों की समझ उनमें नगण्य मात्र होती है।

इसका नतीजा यह हुआ कि बच्चों को दो कैटेगरी में बांट दिया गया है ।एक तो सामान्य प्राइमरी विद्यालयों में पढ़ने वाले जहां के अध्यापक /अध्यापिका के बच्चे । मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि कोई प्राइमरी की स्कूल का शिक्षक नहीं चाहेगा उसका बच्चा प्राइमरी में पढ़े।

हो सकता है कि हमारी बातें शत प्रतिशत सही ना हो लेकिन यही है भारतीय सरकारी विद्यालयों की सच्चाई। इसमें सुधार तब तक नहीं हो सकता जब तक की सभी सरकारी प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालय के अध्यापकों के बच्चों को अनिवार्य रूप से सरकारी विद्यालयों में शिक्षा के लिए बाध्य ना किया जाए।

इसका दूसरा कारण यह भी है कि प्राइमरी अध्यापकों से ही सरकार कभी वोटिंग तो कभी जनगणना ना जाने क्या से क्या कार करा रही है अब तो मिड डे मील ने तो विद्यालय को आश्रम बना दिया ।

जहां बच्चे मुफ्त का भंडारा खाने आते हैं। यह एक प्रकार से सरकारी कुटीर चाल है जिसे गरीबों के बच्चों को उनके शिक्षा के अधिकार का हनन किया जाता है ।दूसरी और प्राइवेट विद्यालय हैं जहां अध्यापकों से तो खूब काम लिया जाता लेकिन वेतन के रूप में कुछ पैसे देकर टरका दिया जाता है।

यह भारतीय शिक्षा व्यवस्था की विडंबना ही कही जाएगी कि प्राइवेट सरस्वती शिशु मंदिर या पब्लिक स्कूल के अध्यापकों के दुख को सुना जाए तो हृदय कांप जाएगा। यह बच्चों को ज्ञान देने वाले शिक्षकों को अपनी जरूरतों को पूरा करने तक के लिए जब पैसे नहीं है तो वह घर परिवार की आवश्यकता की पूर्ति कैसे करेगा?

ऐसे अध्यापकों को सारी जिंदगी कलम घिस्ते घिस्ते खत्म हो जाती है लेकिन अंत में लगता है कि जहां से शुरू किया था जिंदगी अभी वही की वही है। ऐसी स्थिति भारत के कुछ विद्यालयों को छोड़ दिया जाए तो सभी प्राइवेट विद्यालयों की है। जहां का शिक्षक अपनी आवश्यकता की पूर्ति अपने वेतन से कभी नहीं कर सकता।

सरकार को चाहिए कि प्राइवेट पब्लिक स्कूलों के अध्यापकों के लिए भी वेतन की एक स्कीम तैयार की जाए। जिस प्रकार से मजदूरों के लिए भी एक न्यूनतम मजदूरी निर्धारित है अध्यापकों को तो उससे भी कम गई गुजरी स्थित में वेतन मिल रहा है। आर्थिक रूप से कमजोर अध्यापक बच्चों को कैसे श्रेष्ठ शिक्षा दे सकता है इस पर चिंतन करने की आवश्यकता है।
शेष अगले अंक में

नोट – इस आत्मकथा में जो भी बातें कहीं गई है वह सार्वजनिक हैं। कोई भी शिक्षक व्यक्तिगत रूप से ना लें। शिक्षक समाज का दर्पण है। यदि कोई शिक्षक न्यूनतम वेतन में भी शिक्षण कार्य श्रेष्ठ तरीके से करा रहा है उससे महान इस दुनिया में कोई व्यक्ति नहीं हो सकता। इस देश की विडंबना ही कही जाएगी कि आज भी हजारों अध्यापक दैनिक मजदूरों से भी कम वेतन में शिक्षण कार्य करने को मजबूर हैं।

भाग : 4

 

प्राथमिक शिक्षण किसी भी व्यक्ति को जीवन निर्माण की नींव तैयार करता है। नींव जितनी कमजोर होगी तो भवन का निर्माण कैसे मजबूती से हो सकेगा? भारत सरकार उच्च शिक्षा पर तो अत्यधिक जोर दे रही है परंतु प्राथमिक कक्षाओं के शिक्षण का स्तर इतना घटिया दर्जे का है कि उसे भुक्तभोगी ही समझ सकता है।

विद्यालयों का कोई नियम ही नहीं होता । यदि ऐसा विद्यालय पिछड़ी तपको में है तो उसकी हालत और भी खस्ताहाल होगी। एक तो छोटे-छोटे बच्चे ज्यादा विरोध तो कर नहीं पाते हैं इसलिए ऐसे विद्यालयों में अध्यापकों की और मौज हो जाती है।

यही प्राथमिक कक्षाओं में जो बच्चे सताए जाते हैं वही बड़े होने पर अध्यापकों से जमकर बदला लेते हैं । ऐसे में बच्चों को यही कहा जाता है कि वह नालायक है, जो किसी की नहीं सुनते परंतु अध्यापकों को नहीं लगता कि इसकी जड़ कहीं न कहीं हमने ही बचपन में बोई थी जो आज जाकर फल फूल रही हैं। मैंने हैदर पब्लिक स्कूल, मेरठ में अध्ययन के दौरान अनुभव किया कि बड़े बच्चों को कितना भी मारा जाए वह किसी की नहीं सुनते।

शिक्षा पद्धति की यह बहुत बड़ी खामी है कि बच्चों को आज भी डंडे के बल पर हांका जा रहा है । कुछ अध्यापक तो बच्चों को पीटना अपना अधिकार समझते हैं। हाथ से तो ज्यादा नहीं मारते हैं क्योंकि चोट आ जाने का डर है परंतु मारने के लिए विशेष तौर से डंडा रखते हैं।

शहरी क्षेत्र की अपेक्षा गवई क्षेत्र में ज्यादा बच्चों की पिटाई होती है। उन्हें ऐसा मारा जाता है जैसे जानवरों को भी नहीं मारा जाता होगा। जो विद्यालय दादा टाइप के हैं उनकी तो पूछो ही मत। ऐसे विद्यालय में छात्र कितनी भी शिकायत करता रहे परंतु उसकी कोई नहीं सुनता ।यदि माता-पिता से कहता भी है, तो यही कहकर अभिभावक अपना पल्ला झाड़ लेते हैं कि तेरी ही गलती रही होगी और बच्चों को ही ऊपर से डांटते हैं ।

मैंने अनुभव किया है कि जो अध्यापक अपने घर परिवार के समस्याओं से ज्यादा परेशान होते हैं वही बच्चों को खूब मारते हैं। घर का सारा गुस्सा बच्चों पर उतार देते है।

मेरी प्राइमरी कक्षा के कुछ अध्यापक बच्चों को मारने में बहुत एक्सपर्ट थे । सभी का नाम तो नहीं पता लेकिन चेहरे जरूर याद है। एक थे- सत्यम मास्टर । गुस्सा आने पर पूछो ही मत । ऐसी धुनाई करते थे कि बच्चों की जान लेकर ही छोड़ते थे। दूसरे थे पंडित जी (नाम याद नहीं ) वह मारते तो कम थे , लेकिन जब पारा चढ़ जाता था तो वह भी आगे पीछे नहीं देखते थे और पिल पड़ते थे फट्टा लेकर । फिर बिना बच्चों का कचूमर निकल नहीं छोड़ते थे।

एक हरिजन जाति के गुरुजी थे ।वह एक दिन वह हम सब को समझाने लगे कि -“देखो बच्चों! सभी का शरीर चमड़ी से ही तो बना है इसलिए सभी चमार हैं । ना कोई ऊंचा है ना नीचा बल्कि परमात्मा ने सभी को सामान बनाकर ही इस दुनिया में भेजा है। इसलिए भेदभाव हमें नहीं कभी किसी से नहीं करना चाहिए। भेदभाव बरतना परमात्मा का अपमान करना है।

निम्न जाति का होने के कारण अक्सर उनका मजाक उड़ाया जाता लेकिन वह सबको नजर अंदाज करके अपने काम में लगे रहते । मानवीय एकता का पाठ पढ़ाना जैसे उनका एकमात्र उद्देश्य हो।

बड़े होने पर अनुभव करता हूं कि उनकी मार में भी प्रेम छुपा होता था। माता-पिता एवं गुरुजनों की मार जो व्यक्ति सह लेता है वही जीवन में एक महान इंसान बनता है।

आज हमारे सभी प्राथमिक विद्यालयों के अधिकांश शिक्षक नहीं है लेकिन उनके डांट डपट मार का प्रभाव है कि हम जीवन की सफलता के उच्चतम शिखर पर पहुंचा दिया ।

विद्यार्थी जीवन में अनुशासन का विशेष महत्व है। अनुशासित विद्यार्थी जीवन की सफलता प्राप्त कर सकता है।योग का प्राथमिक सूत्र भी अनुशासन है। जिस बच्चे को बचपन में अनुशासन बद्ध रखा जाता है उसका प्रभाव उसके संपूर्ण जीवन पर पड़ता है। अनुशासन के बिना जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता पाना मुश्किल है।

इसके बाद हमारा नाम कक्षा चार में अशर्फीलाल जायसवाल जूनियर हाई स्कूल में जो बाबूगंज बाजार के अंत में स्थित है लिखाया गया । वास्तव में देखा जाए हमारी शिक्षा का श्री गणेश यहीं से हुआ क्योंकि गांव के प्राथमिक विद्यालय में एक प्रकार से मेरा समय ही बर्बाद हुआ। मुझे ठीक से अक्षर ज्ञान भी नहीं हो पाया था।

यहां के एक अध्यापक थे श्री राम बहादुर गुरुजी जो की गणित पढ़ाते थे। वह गणित को खेल-खेल में ही समझा देते थे। उनका वरद हस्त आज भी हमें प्राप्त हो रहा है । जब भी घर जाता हूं तो उनसे जरूर मिलने का प्रयास करता हूं । वे ऐसी बातचीत करते हैं जैसे एक मित्र हों । वह हमारे एक अच्छे मार्गदर्शक की भांति थे । कोरोना काल में उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन उन्होंने जो प्रेम अपनत्व दिया वह आज भी हृदय की गहराइयों में अनुभव करता हूं।

राम सिंह गुरु जी संस्कृत पढ़ाया करते थे । वह एक छोटी सी छड़ी रखते थे ।नहीं आने पर पिटाई कर देते थे । मैं संस्कृत में बहुत कमजोर था। श्लोक वगैरा मुझे रटा नहीं जाते थे इसलिए अक्सर मैं पीट जाता था। लेकिन वह संस्कृत बहुत अच्छी तरह पढ़ाते थे ।

वह कहते हैं -“हमें संस्कृत भाषा का ज्ञान अवश्य करना चाहिए। जितने भी हमारे प्राचीन साहित्य हैं सभी संस्कृत में ही लिखे गए हैं ।मंत्र भी सभी संस्कृत में है। यदि तुम लोग संस्कृत नहीं पढ़े हुए हैं तो कैसे अपने प्राचीन धरोहर को बचा सकोगे।

बेटा जिस देश के नागरिक को अपनी संस्कृति सभ्यता से प्रेम नहीं होता उसे नष्ट होने से कोई नहीं बचा सकता । हमें संस्कृत पढ़ने लिखने एवं बोलने पर गर्व होना चाहिए।

आज सोचता हूं कि कितनी सत्य थी उनकी बात । आज पछताता हूं की कास अगर अच्छी तरह से संस्कृत पढ़ा होता तो बहुत प्रयास के बाद भी मैं सुर लय ताल के साथ वैदिक मंत्रों का उच्चारण कर पाता। गीता पाठ थोड़ा-थोड़ा कर लेता हूं।

महेंद्र प्रताप गुरु जी भूगोल पढ़ाते थे । वे स्कूल से सात आठ किलोमीटर साइकिल से आते थे। मैंने देखा कि आज भी साइकिल से ही आते हैं । वहीं के अधिकांश अध्यापक अब रिटायर हो चुके हैं ।

प्रधानाचार्य जी बहुत ही सज्जन व्यक्ति थे । वे जीवन की अंतिम समय तक प्रधानाचार्य रहे ।कुछ वर्षों पूर्व उनका देहांत हो जाने के पश्चात राम जियावन गुरु जी प्रधानाचार्य बने , उसके पश्चात राम बहादुर मास्टर साहब प्रधानाचार्य बने, उसके बाद राम सिंह मास्टर साहब प्रधानाचार्य बने वर्तमान समय में सभी अध्यापक रिटायर्ड हो चुके हैं।

प्रधानाचार्य जी द्वारा बताया गया अंधविश्वासों के प्रति एक किस्सा आज भी याद आता है ।वह एक बार बच्चों से कहने लगे कि -“आज मैं भूत प्रेत पैदा करने की दवाई बताता हूं ।”

फिर वह कहने लगे -“देखो जिस रास्ते से स्त्रियां प्रातः काल शौच जाती हैं उसी चौराहे पर तुम एक लोटा में जल लेकर उसमें फूल माला डाल दो और वहीं पर जल डालकर ऊपर से फूल चढ़ा दो माला चढ़ा दो नींबू काट दो तो तुम देखोगे कि सुबह 10:20 औरतें भूत से ग्रसित मिलेंगी ।जिस भी स्त्री का पैर उस पर पड़ेगा वह बीमार हो जाएगी।”

उन्होंने बताया कि ऐसा इसलिए होता है कि -“उनके मन में एक भय बैठ जाता है कि कोई निकारी कर दिया है ।इस डर से वह बीमार पड़ जाती हैं।”

उन्होंने आगे बताया कि -“भूत प्रेत नाम की कोई चीज नहीं होती है । जब कोई व्यक्ति वहां से निकलता है तो उसके मन-मस्तिष्क भय व्याप्त हो जाता है। यदि बच्चों को बचपन से ही इस प्रकार के वहम से दूर रखा जाए तो वह एक स्वस्थ नागरिक बन सकते हैं।

विद्यालय में शौकत अली गुरुजी थे जो की बहुत अच्छा पढ़ाते थे ।मुस्लिम होते हुए भी वे हनुमान जी के भक्त हैं और हर रविवार को अपने घर में छुआ मंतर भी करते हैं ।जिसमें बहुत सी स्त्री पुरुष उनके यहां भूत प्रेत उतारने के लिए आती हैं ।ऐसा वे बहुत सालों से कर रहे हैं।

विद्यालय में एक चपरासी राम आधार यादव जी थे जो की अंतिम समय तक वहां चपरासी थे ।वह भी एक बहुत दिल नेक इंसान थे।

इस विद्यालय को कोई सरकारी अनुदान नहीं मिलता था। प्रबंधक भी कभी विद्यालय के विकास के बारे में नहीं सोचा। यही कारण रहा है कि जिस प्रकार से पिछले 25- 30 वर्षों पूर्व विद्यालय था आज भी उसी हालत में है । एक भी कमरे का निर्माण नहीं हो सका है आज तक।

सच्चे अर्थों में देखा जाए तो इसे कहते हैं तपस्वी का जीवन। जीना । घर परिवार छोड़कर घने जंगल में तपस्या करने की अपेक्षा अभाव में रहते हुए बच्चों को जीवन निर्माण की कला सीखलाना क्या किसी तपस्या से कम है।

एक दिन राम जियावन गुरुजी चर्चा करते हुए बताया कि -“मेरी पत्नी रोज लड़ती की कौन सा स्कूल में फूल चुवत है जो तुम छोड़ नहीं देते । सारी जिंदगी कलम घिस्ते बीत गए। सर के सारे बाल सफेद हो गए लेकिन क्या मिला तुम्हें ।तो पढ़ाने का नशा सवार है ।कभी इन बाल बच्चों का भी ख्याल रखा होता।”

उन्होंने बताया कि घर में खेती बाड़ी का काम कर लेने के कारण जिंदगी कट जा रही थी। हालांकि आज जाकर विद्यालय को सरकारी अनुदान मिलने लगा है परंतु सारी जवानी तो खत्म हो गए।

आज की व्यावसायिक विद्यालयों को सीख लेनी चाहिए कि दुनिया में आज भी त्यागी तपस्वी शिक्षक हैं जिनकी बदौलत शिक्षा की गरिमा बनी हुई है।

 

भाग-5

हमने गांव में रहते हुए अनुभव किया कि महिलाएं पुरुष की अपेक्षा ज्यादा व्रत- उपवास रखती हैं । मेरी मां भी कई वर्षों से मंगलवार रखती रहीं । इसके अलावा पूर्णिमा ,एकादशी, अमावस , नवरात्रि आदि भी वह बहुत नियम से रखती।

अक्सर वह दिन भर भूखी रह जाती है। दिनभर काम भी घर के सारे करतीं ।यदि बड़े भैया फल नहीं ले तो चाय पीकर ही सो जाती परंतु किसी प्रकार की कोई शिकायत नहीं करती।

मां के संस्कारों का ही प्रभाव है कि हम सभी भाई-बहन कोई ना कोई व्रत उपवास करते रहे हैं। सद्गुरु ओशो कहते हैं कि मनुष्य को समृद्धशाली होना चाहिए । जिस व्यक्ति के मन में धन के उपभोग के प्रति वितृष्णा उत्पन्न नहीं हो जाती है उसे कोई महान वस्तु साधना उपासना से नहीं मिलने वाली। वह भगवान से मांगेगा भी तो धन दौलत बेटा बेटी ही मांगेगा।

मां भी भगवान के सामने यही कामना करती कि घर में सुख शांति हो, आर्थिक समृद्धि हो, घर में आर्थिक अभाव सदैव बना रहा। घर में कमाई का कोई बड़ा जरिया नहीं था । रोज कुआं खोदो और रोज पानी पियो जैसी स्थिति रही ।

भैया जो अनाज खरीदते थे उसे तुरंत बेच देते थे। उसी से जो भी पैसा मिला बाजार से सब्जी वगैरह लाने में खर्च हो जाते थे । भैया का बैंक में खाता खुलवाने के पश्चात भी उसमें एक पैसा नहीं जमा कर सके आखिर जब बचे तब तो जमा करें ना।

बचपन से गरीबी क्या होती है इसका अनुभव मैं बहुत नजदीक से किया। मेरा घर मिट्टी एवं खपरैल का बना बहुत पुराना था । बरसात में पानी टपकने से घर पानी से भर जाता। कभी-कभी दीवारें फट जाती ।एक दिन बरसात में तो घर की दीवार का पिछला हिस्सा गिर गया सारा पानी पूरे घर में भर गया। किसी तरह बरसात रुकने पर पानी को बाहर फेंका जा सका।

घर की दीवार क्या गिरना शुरू हुई कि धीरे-धीरे पूरा घर ही गिर गया । घर में तो बचत के कोई पैसे थे नहीं की अपना नया घर बनाया जा सके इसीलिए भैया ने एक बास को काटकर प्लास्टिक के पनियों द्वारा छोटी सी मढ़िया बना दिया ।

अब वही परिवार के सारे लोगों के आराम गाह बन गए। प्रभु की क्या लीला है वही जाने। कहते हैं विपत्ति जब आती है तो चारों ओर से आती है । इसी बीच मझले भैया ने बैंक से कुछ कर्ज ले लिया था । कर्ज लेते समय उन्होंने किसी को घर में नहीं बताया।

पैसे को जहां भी लगाया सारा का सारा डूब गया। कुछ लोगों ने ले लिया तो दिया ही नहीं। उन्होंने कर्ज की कोई किस्त भी नहीं भरी थी । उसकी जब इंक्वारी आए तो घर की इज्जत बची रहे भैया को दिक्कत ना हो खेत को गिरवी रखकर सारे कर्ज चुका दिए गए।

खेत का एक हिस्सा मेरे हरिद्वार में अध्ययन के दौरान पैसा ना रहने पर रखा जा चुका था ।अब तो सारा खेती गिरवी हो चुका था। खेत था तो इस बात की चिंता नहीं करनी पड़ती थी कि क्या खाया जाएगा। खाने की चीज खेत में उगा ली जाती थीं ।साथ ही मां भाभी लोग उसी में व्यस्त रहती थीं।
गरीब आदमी हर तरफ से मारा जाता है।

अमीरों को कुछ नहीं कहता। लाखों करोड़ों करोड़ रुपए अमीर डकार कर विदेश भाग जाते हैं और सरकारें भी अमीरों का ही साथ देते हैं । एक प्रकार से देखा जाए तो सरकारें अमीरों की गुलाम होती हैं। उन्हें डिफॉल्ट दिखाकर अधिकांश उनका कर्ज माफ भी कर दिया जाता है।

वही गरीबों की जान की आफत आ जाती है । यही कारण है कि बहुत से किसान , मजदूर आदि कृषि में घाटा लगने पर आत्महत्या तक कर लेते हैं। ऐसी स्थिति में मां के धैर्य को दाद देनी पड़ेगी। किस प्रकार से इतनी विपरीत परिस्थितियों के बीच परिवार को चला रही थी यह उन्हीं से सीखा जा सकता है।

मुझे लगता है कि मां जरूर पूर्व जन्मों की कोई दिव्य आत्मा रही है। उनका तो संपूर्ण जीवन ही जैसे दुखों की कहानी है । जिंदगी का सुख क्या होता है जैसे उन्होंने जाना ही नहीं। पिताजी की मृत्यु के बाद उनको सुख की एक रोटी कभी नहीं मिल सकीं।

अब सोचिए जिसका सारा खेत गिरवी पड़ा हो, घर गिर गया हो, मढ़ैया बनाकर उसमें वह यायावर की तरह सरण लिया हो उसकी सुख क्या मिल सकता है? कभी-कभी तो उन्हें घर पर अकेले रह जाना पड़ता था । मन में आया तो बना कर खा लिया नहीं तो वैसे ही सो गई।

प्रभु का शुक्रगुजार है कि घर के पास ही प्राथमिक विद्यालय है। जब कोई मेहमान आता तो उन्हें स्कूल में ही रोकना पड़ता। कभी-कभी तो नए मेहमान आना चाहते हैं उन्हें घर पर बुलाने में शर्म सी महसूस होती है ।उन्हें कैसे बुलाए।

अधिकांश लोगों को कोई न कोई बहाना बता कर टाल दिया जाता। बच्चे भी बड़े हो रहे थे । बड़े भैया जहां रहते थे वहां पत्थर तोड़ने वाले बाहर के घुमंतू लोग रहते थे। वह दिन रात लड़ते झगड़ते थे ।गंदी-गंदी गाली भी बकते थे। उनके बच्चे भी उसी प्रकार हैं महिलाएं भी नशेड़ी है पुरुष तो नशा करते ही हैं।

उस समय बड़े भैया की बेटी की शादी नहीं हुई थी। भैया को बेटी की शादी की चिंता सताए जा रहे थी। भगवान का शुक्रगुजार है क्या एक अच्छा रिश्ता मिला और बेटी की शादी एक अच्छे परिवार में हो गई। जो आज एक खुशहाल जिंदगी जी रही हैं।

भाग-6

मेरे गांव में मेरा सबसे प्रिय दोस्त धर्मेंद्र था । जो केवल मुझसे दो दिन ही बड़ा है। वह रविवार को पैदा हुआ तो हम मंगलवार को। उसके घर वाले से मेरे घर वालों में खूब पटती है। मेरी मां और उसकी मां बहुत अच्छी सहेली भी हैं ‌। दोनों सहेलियां भी अक्सर समय मिलने पर अपने सुख-दुख की बातें करने लगते हैं। वर्तमान समय में दोनों की माताएं स्वर्गवासी हो चुकी है। अब उनकी केवल स्मृति सेष ही है।

अक्सर उसके घर में ही मैं पढ़ता था और कभी-कभी तो वही सो भी जाता था । मेरे घर में बिजली नहीं थी । मां बिजली का तार नहीं खींचते देती थी।वह कहती थी कि कच्चे घरों में करंट उतरने का डर रहता है । बचपन से ही मैं किताबी कीड़ा था जो कि आज भी हूं । किताबों से मित्रता हमारे बचपन से ही रही ।

मेरी बहन शकुंतला दीदी के घर में बाल योगेश्वर जी महाराज की लिखित किताबें एवं मासिक पत्रिका ‘शब्द ब्रह्म’ आती थी। जिसे मैं छठवीं आठवीं कक्षा से ही पढ़ता रहा हूं । उनकी बातें मुझे बहुत ही अच्छी लगती हैं।

महाराज जी का मुख्य संदेश है कि ज्ञान तुम्हें कहीं बाहर नहीं मिलेगा जितना तुम बाहरी दुनिया में भटकोगे उतना ही उलझ और जाओगे। सच्चा ज्ञान पाने के लिए तुम्हें हृदय के द्वार को खोलना पड़ेगा। पानी पानी कहने से प्यास नहीं बुझेगी बल्कि पानी पीने से बुझेगी ।

तुम्हें इतनी प्यास होनी चाहिए कि बस पानी का ख्याल रह जाए । यह ना रहे की बर्तन साफ है कि जूठ ,किस जाति का है ,बस पानी पीने की तड़प हो यदि हृदय से इतनी तड़प होगी तो अवश्य पानी बहुत मीठा लगेगा इसी प्रकार ज्ञान पाने की तड़प होनी चाहिए।

महाराज जी बहुत ही सादे कपड़ों में रहते हैं। कभी भी उन्होंने गेरूआ वस्त्र धारण नहीं किया । उनके बड़े भाई हैं सतपाल जी महाराज सभी संत हैं। सभी अपना अपना प्रवचन देते हैं। बचपन में महाराज जी पर बहुत श्रद्धा थी ।परंतु बाद में देखा कि सब दुकानदारी है । आखिर सभी भाइयों को महाराज बनने की क्या जरूरत थी।

लेकिन महाराज गिरी का धंधा भी भारत में बहुत चोखा है। जिसको थोड़ा बोलना आता है। जनता को बरगलाने की कला आती है ।वह बन जाता है महाराज । विभिन्न प्रचार के साधन उपलब्ध होने से बाबागिरी बहुत फलने फूलने लगी है ।

सुबह यदि किसी चैनल को खोलो तो कोई ना कोई आपके भविष्य का निर्णय करते जरूर दिखेगा की ऐसा करो तो यह हो जाएगा । आज का दिन ऐसा होगा वैसा होगा बस केवल दुकानदारी ही कर रहे हैं। जिनको अपने ही भविष्य का नहीं पता वे संसार का भविष्य बताने लगते हैं।

आप फिर लौट कर चलते हैं गांव की ओर। मैं अपने गांव में बचपन से ही है अच्छा बच्चा माना जाता रहा हूं क्योंकि मैं शांत प्रवृत्ति का रहा हूं। कभी ज्यादा किसी से लड़ाई झगड़े में भाग नहीं लेता था । कभी-कभी मेरे सीधेपन का गलत फायदा उठाया जाता रहा है जो कि आज भी लोग नहीं चूकते।

मेरी मां तो कहती है कि मुझसे तो अच्छे अनपढ़ गवार हैं देखो कितने चालाक हैं । क्या मजाल उनको कोई वस्तु तुम्हें दें दें।लेकिन एक तू है कि घर की चीज भी लुटाया फिरता है। मुझे बचपन से ही फकीरीपन की आदत पड़ गई थी । कोई भी वस्तु खाने पीने की यदि घर के लिए लाना चाहे परंतु रास्ते में बच्चों की टोली मिल जाए तो घर के लिए बचाना मुश्किल होता है।

यही कारण है कि आज भी मैं एक भी पैसा नहीं बचा सका । मेरा बैंक बैलेंस शून्य है । बैंक में एक बार खाता खोला भी था परंतु उसमें पैसा नहीं डालने के कारण लगता है बंद हो गया है क्योंकि वर्षो से उसको पता भी नहीं किया ।

मेरे पिताजी दो भाई थे लेकिन उनके छोटे भाई का देहांत बिना बाल बच्चों के ही हो गया था पड़ोस के बद्री चाचा जी के एक लड़का एवं एक लड़की है जिनके दो बच्चों की शादी हो गई है। लड़के का नाम राजेंद्र प्रसाद जो मुझे 6 –7 वर्ष छोटा है उसके चार लड़के हैं।

हमारे दूसरे पड़ोसी के तीन लड़के एवं दो लड़कियां हैं । उनके पिताजी बचपन में गुजर गए थे सभी की शादी विवाह हो चुकी है। पड़ोस के गुलाब भाई की मां को सफेद दाग था। जिसके कारण शादी विवाह में दिक्कते होती थीं ।आज भी सफेद दाग को समाज में अच्छा नहीं माना जाता है। जिसके घर में किसी को सफेद दाग की बीमारी हो जाती है उसकी कई कई पीढियां को फजीहत उठाने पड़ती है।

मेरा परिवार उनसे आनुवंशिक रूप से भी अलग होते हुए भी कई बार शादी विवाह में दिक्कतें आए मेरे मजले भईया की शादी पक्की होने के बाद भी टूट गई छोटी-मोटी दिक्कतें आती रहे।

गांव में वैसे सभी मिलकर रहते हैं। मेरे गांव में 90 के दशक तक कोई विद्यालय नहीं था। इसलिए अधिकांश बच्चे शिक्षा से वंचित रह जाते थे । इस्लामिक बस्ती में तो शिक्षा का स्तर बहुत ही कमजोर है। पूरी मुस्लिम बस्ती में एक दो लोग एम.ए. किए हैं ।जो कि शहर में रहते हैं लेकिन गांव में स्कूल खुलने से उनके भी बच्चे पढ़ने लगे हैं।

अब तो शिक्षा के प्रति जागरूकता बड़ी हैं। हमारे क्षेत्र में तीन चार डिग्री कॉलेज भी खुल गए हैं । छोटे मझले विद्यालयों की कमी ही नहीं है । परंतु दुख इस बात का है कि शिक्षा तो बढ़ रही है लेकिन संस्कार खत्म हो रहे हैं। जिसका परिणाम समाज में उडनडता के रूप में दिखलाइ पड़ रहा है।

 

भाग-7

 

मेरे पड़ोस में एक सालिकराम चाचा हैं जो कि अपने समय के कक्षा 8 तक पढ़े हैं। वे अक्सर तर्क करते रहते हैं कि आज की पढ़ाई भी कोई पढ़ाई है। ना आज का इंटर, बी ए, ना हमारे जमाने का जूनियर हाई स्कूल । विशेष कर बच्चों से वें गणित के कठ बैठी सवाल पूछते यह सवाल बड़े उलझन भरें होते थे । जिनका किताबों से कोई सरोकार नहीं होता।

यदि आप उनके सवालों को बता लिए तो ठीक नहीं तो कहते देख लिया ना, चलो हम तुम्हें बताते हैं और फिर उनकी गणित निकल आती । उनको गांव में पंडित भी कहते हैं। वैसे वो पटेल है।

वह किसी पंडित के यहां पत्रा पूछने नहीं जाते बल्कि स्वयं देखते हैं । पूरे गांव के लोग उनसे शाइत , शुभ दिन , वार भी पूछने आते हैं । हमारी बस्ती में पंडित नहीं रहते इसलिए गांव की माताएं बहने उन्हीं से पूछ लेती हैं।

वैसे वह बहुत अच्छे इंसान हैं। हमारी उनसे बहुत पटती भी है। वे कर्म पर विश्वास रखने वाले इंसान हैं । आज भी लगभग 80 वर्ष के होने के पश्चात भी बाजार से सब्जी बेचकर अपना खर्च स्वयं चलाते हैं।

मेरे पड़ोस में लाला भाई और रमाकांत भाई हैं । दोनों में खूब पटती है परंतु दोनों लोग जमकर शराब पीने वाले रहे । लेकिन बचपन में मैं देखता था कि वह बहुत अदब के साथ बोलते थे। कभी ज्यादा गाली गलौज नहीं करते थे परंतु लाला भाई अपनी पत्नी को गुस्सा चढ़ने पर मार दिया करते थे । उनके बच्चे छोटे थे जिससे ज्यादा विरोध नहीं कर पाते थे।

एक बार उनका एक्सीडेंट हो गया जिससे उनके शरीर में बहुत गहरी चोट आई। लंबे समय तक प्लास्टर चढ़ा रहा परंतु पिछले कुछ सालों पूर्व उनका देहांत हो गया। इसी प्रकार रमाकांत भाई को भी पेट में जल भर जाने के कारण आज वह भी जीवित नहीं बचे।

मैने पड़ोस में देखा था कि किसी की चिट्ठी आतीं थी तो उन्हें पढ़वाने ले जाते थे। मेरे बड़े भैया जब कमाने के लिए जाते थे तो अम्मा चिट्ठी उन्हीं से लिखवाती थी और चिट्ठी आने पर अक्सर उन्हीं से पढ़वाती थी।

भाग्य के थपेड़ों ने उनको आजीवन ठोकर मारता रहा। कभी ठेकेदारी, कभी पुलिस में नौकरी परंतु कहीं स्थाई नहीं हो सके। शराब ने उनका जीवन बर्बाद कर दिया । शराब है ही ऐसी डायन जो बड़े-बड़े की बुद्धि को नष्ट कर देती है।

बचपन में मैं मिट्टी के खिलौने खूब बनाता था । तालाब से मिट्टी लाकर उससे मोटर गाड़ी, चिड़िया, हाथी, तोता, गणेश, लक्ष्मी आदि बनाया करता था। दिवाली में छोटा सा घर बनाता था। उसे अच्छी प्रकार से सजाता था । कुछ गांव के उजड्ड बच्चे घरों के अंदर पटाखे फोड़ देते थे। जिससे घर टूट कर तहस-नहस हो जाता था। मैं उन्हें खूब बिगड़ता था। लेकिन मां लड़ने से मना करती।

जो सुख और आनंद हमें मिट्टी के खिलौने एवं घर बनाने में आता था वह सुख महगे -महगे खिलौने से हमें नहीं प्राप्त हो सकेगा। अपने हाथों द्वारा बनाए वस्तु का आनंद ही कुछ और होता है उसका आनंद बनाने वाला ही जानता है।

अब तो शहरों के डॉक्टर भी बंगले में रहने वाले बच्चों को बीमार होने पर हिदायत के तौर पर कहने लगे हैं कि यदि आपको अपने बच्चों को स्वस्थ रखना है तो उसे मिट्टी में खेलने दीजिए।

मिट्टी में खेलने से उसकी इम्युनिटी पावर बढ़ेगी जिससे वह अंदर से मजबूत होगा । देखा गया है कि ज्यादा सुख सुविधा में पलने वाले बच्चे अत्याधिक बीमार होते हैं । जबकि खुले आसमान में नंगे बदन टहलने वाले गरीब घरों के बच्चे उतना बीमार नहीं होते । ऐसे मां-बाप जो बच्चों को खुली हवा में प्राकृतिक रूप से खेलने नहीं देते वें उनके बहुत बड़े दुश्मन है ।बच्चों का स्वस्थ विकास प्रकृति के सानिध्य में ही होता है।

बचपन में बिताए मस्ती के छणों को यदि एक-एक कर लिखने लगू तो उसके लिए अलग ग्रंथ ही बनाना पड़ेगा। घर में सभी मुझे बाबा कहकर बुलाते थे। जिससे लगता है कहीं ना कहीं बाबापन का संस्कार हमारे मन में बहुत गहरा गया है ।

गांव में गुल्ली -डंडा खूब पहले खेला जाता रहा। प्रेमचंद द्वारा लिखित कहानी ‘गुल्ली डंडा’ प्रसिद्ध है उसे कमरे में बैठकर वीडियो गेम खेलने वाले बच्चों से उसकी तुलना नहीं की जा सकती।

इन खेलों से जहां शरीर स्वस्थ और मजबूत होता था वही मन में प्रसन्नता आती है । कहते हैं कि स्वस्थ शरीर में ही शांत मन का वास होता है । परंतु कमरे में बैठकर वीडियो गेम खेलने या टीवी देखने से जहां एक ओर शरीर बीमार हो जाता है। वहीं सर में तनाव बढ़ जाता है । मन बोझिल व गुस्सैल हो जाता है। टीवी पर अश्लील चित्र देखने से भाव में उत्तेजक विचार आने लगते हैं।

यही कारण है कि आज भी युवा पीढ़ी में हताशा निराशा के लक्षण स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। बच्चों के बीच जो आज इतनी हिंसा बढ़ रहे हैं । उसमें से एक बहुत बड़ा कारण बच्चों का हिंसक फिल्में देखना, वीडियो गेम खेलना, गंदी नेट की साइड देखना है । जाने अनजाने कितना उनका इससे नुकसान होगा यह वे नहीं जानते।

मेरे गांव में राम अचल जी जो की सर्व समाज जूनियर हाई स्कूल में प्रधानाचार्य थे । उनसे मेरी खूब पटती थी । वैसे हमारे सामान उनके बच्चे थे। परंतु हम लोग मित्रों जैसे ही बातें करते थे। उन्हें अपनी ससुराल में जायज़ाद मिले हुए थे इसलिए वह अक्सर वही रहते थे।

बाद में उन्हें हृदय रोग हो गया जिससे वे अब अपने गांव में आकर रहने लगे थे ।वह इतने सरल इंसान थे कि बाद में उन्होंने मुझसे ही गुरु दीक्षा लिया । इस प्रकार से हमारे गुरु भाई बन गए।
वे अपने जीवन से असंतुष्ट थे।

इसका एक प्रमुख कारण था कि उनके पिताजी ने उनकी शादी धन के लालच में ऐसी लड़की से कर दिया था जिसको कोई भाई नहीं था । उन्हें ससुराल में रहना रास नहीं आया । जिसके कारण बड़े-बड़े दाढ़ी बाल बढ़ाकर बाबा जी की तरह रहने लगे थे । इसी गम ने उन्हें हृदय रोगी बना दिया।

बच्चों को पढ़ाने का उन्हें अच्छा अनुभव था। एक दिन हृदयाघात हो जाने के कारण अचानक उनकी मृत्यु हो गई । उनके मरने के बाद में मुझे गांव जैसे सूना सूना सा लगने लगा है । मैं गांव में जाता भी हूं तो थोड़ी देर टहल घूम कर लौट आता हूं।

उनके मरने के बाद हमने उनकी जीवनी भी लिखी लेकिन उसकी छपाई के लिए ना तो उनके भाई तैयार हुए ,ना ही बीवी बच्चे। जिस स्कूल में प्रधानाचार्य थे उन्होंने भी पल्ला झाड़ लिया। दुनिया कितनी खुदगर्ज है इसका आभास मुझे हुआ ।

उन लोगों को लग रहा था कि इसमें मेरा कोई स्वार्थ है ।धीरे-धीरे वर्षों प्रयास करने के पश्चात भी उसे छपा नहीं सका। लेकिन मैं उसे छपा करके ही रहूंगा । वह पुस्तक मेरी मित्रता की मिसाल होगी।

भाग-8

मैंने हाईस्कूल सीताराम सिंह इंटर कॉलेज बाबूगंज बाजार से किया। सीताराम सिंह जी आटा गांव के ठाकुर परिवार के थे। पहले विद्यालय का नाम महाराणा प्रताप इंटर कॉलेज था जो कि उनकी मृत्यु के पश्चात बदलकर उनके नाम पर कर दिया गया । वे आजीवन प्रधानाचार्य रहे । लेकिन जब मैं पढ़ रहा था तो श्री वंश बहादुर सिंह प्रधानाचार्य थे। ठाकुर परिवार के होने के कारण किसी से डरते नहीं थे । विद्यालय में बहुत सख्त पहरा था।

किसी की गलती होने पर फट्टो से पिटाई करते थे । कभी कभी तो घंटों मुर्गा बना कर धूप में खड़ा करवा देते और उस पर ईंट रखवा देते थे। कोई ज्यादा इधर-उधर करता तो पीठ पर फट्टो से सोटे लगाते थे। मैं उनसे बहुत डरता था । उनसे बात करते हुए थर-थर कांपने लगता था।

परंतु अनुशासन को डंडे के बल पर नहीं सिखाया जा सकता। भयभीत बालक और गलतियां करता है । मार खा खा कर कुछ दोस्त पक्के हो गए थे । जिन्हें कितना भी मारा जाए कुछ असर ही नहीं होता था।

किसी लड़के को यदि लड़की से बातचीत करते देख ले तो पूछो ही मत। लड़कियां तो बच जाती थी । लेकिन लड़कों की तो जान आफत में पड़ जाती थीं । उसको मार- मार कर हड्डी पसली एक कर देते थे।

हाई स्कूल की कक्षा में आते-आते लड़के लड़कियों में किशोरावस्था आ जाती है। विपरीत लिंग के प्रति सहज में आकर्षण बढ़ने लगता है । लड़कों और लड़कियां में सहज में आकर्षण बढ़ने लगता है। लड़के तो अपनी इच्छाएं व्यक्त कर देते थे लेकिन लज्जाशील स्वभाव के कारण लड़कियां व्यक्त नहीं कर पाती थी।

बाबूगंज बाजार का एकमात्र इंटर कॉलेज था इसलिए छात्राएं भी बड़ी मात्रा में पढ़ने आती थी । लड़के तो और भी जगह पढ़ने चले जाया करते थे । सह शिक्षा के अपने लाभ भी हैं हानियां भी हैं। मेरी समझ से प्रेम पर इतना प्रबंध न लगाया जाता तो समाज में इतनी दुश्चरित्रता न फैलती।

कहते हैं जिसका विरोध किया जाता है । प्रतिबंध जिस पर लगाया जाता है वह और बढ़ता है। प्रेम पर प्रतिबंध लगाने का ही परिणाम है कि दुनिया में जो भी फिल्में प्रेम पर बनती हैं उनमें भारत सबसे आगे है।

भारत में तो बिना प्रेम के कोई फिल्म भी हो सकती है इसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती हैं।मनोविज्ञान के जन्मदाता फ्रायड के जीवन की एक घटना है। जो इस प्रकार है —

एक बार उनका लड़का खो गया। बहुत खोजबीन के पश्चात भी नहीं मिला तो उनकी पत्नी ने उनसे कहा कि-” कितने निर्दयी बाप हो, बच्चा कब से ग़ायब है तुम खोज नहीं सकते।”

तब फ्रायड ने पूछा कि -“बताओ क्या तुमने उसे कहीं जाने के लिए रोका तो नहीं था “। उनकी पत्नी ने कहा-” रोका तो था। पीछे फाल के पास जाने के लिए।”
फ्रायड ने कहा -“फिर जाकर देखो बच्चा वही होगा।”
अंत में जब उनकी पत्नी खोजने गई तो बच्चा उनको वही मिला।

फिर पत्नी ने पूछा कि-” आखिर तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि बच्चा वही होगा , जबकि तुम यहां काम में व्यस्त थे।”
फ्रायड ने कहा कि -” मैं जान लिया कि तुमने बच्चों को जहां मना किया है वहीं गया होगा। क्योंकि बच्चों का यह स्वभाव है कि उन्हें जिस काम के लिए रोका जाता है उसी को और करते हैं।”

मेरी क्लास में एक मोटा ताजा लड़का आता था। उनकी बाजार में परचून की दुकान थी ।वह सबसे पहले आकर सबसे आगे सीट पर बैठता था लेकिन वह पढ़ने लिखने में बहुत कमजोर था। जिसके कारण खूब मार खाता था।

मेरी कक्षा में तेज तर्राक लड़कों में हिंदी वाले गुरुजी मुन्नी लाल यादव का लड़का अजय था। उसकी राइटिंग गजब की थी।
पूरी क्लास में फर्स्ट अधिकांशत वही आता था। बाद में वह अमेरिका में साइंटिस्ट भी हुआ। लेकिन कुछ वर्षों पूर्व किसी हादसे में उसकी मृत्यु हो गई। कहते हैं परमात्मा जिन्हें ज्ञान देता है उनकी उम्र भी कम कर देता है। अजय यदि आज होता तो भारत के महान वैज्ञानिकों में उसका भी नाम होता।

अन्य दोस्तों में जो पढ़ने में तेज थे वह थे धर्मेंद्र ,आनंद, सतीश, सच्चिदानंद आदि। कमजोर छात्रों में एक रामपाल था ।जिसकी बचपन में ही हाई स्कूल में शादी हो गई थी । वह बहुत मजाकिया भी था । बहुत से दोस्तों का नाम याद नहीं आ रहा है ।कमलेश कुमार भारतीय जो हमारे अच्छे दोस्त तो में रहे जिनके साथ आज भी खूब अच्छी दोस्ती है।

लड़कियों में किसी का नाम याद नहीं आ रहा। चेहरे तो यादों के झरोखे में कुछ-कुछ झलक रहे हैं । मेरी पता नहीं क्या बचपन से ही आदत रही की लड़कियों से ज्यादा बात नहीं करता था। मैं झेंपू टाइप का था। मैं इतना पढ़ने में तेज तर्राक भी नहीं था की लड़कियां मेरे पीछे पड़ती । एक तरह से प्रेम के मामले में मैं फिसड्डी सिद्ध होता था।

यदि किसी से किया भी होगा तो एकांगी प्रेम करना रहा। उनके मन में क्या है कभी सोचा नहीं। यही कारण है कि हमारे जीवन में प्रेम कभी परवान नहीं चढ़ सका। इसका एक कारण मुझे यह भी लगता है कि मेरे परिवार की अति मर्यादा। मेरी मां अक्सर हिदायत देती रहती कि किसी के द्वार पर मत बैठा करो।

जिनके घरों में हम उम्र लड़कियां होती थी तो उनसे बात करने पर डाटा करती थी। आज भी मैं प्रेम के मामले में असफल हूं । कभी ज्यादा बातचीत नहीं करता । किसी से कोई कभी बोल दिया तो ठीक नहीं तो चुप बैठा रहता हूं । कुछ लिखता पढ़ता रहता हूं।

कहते हैं संसार में जितनी श्रेष्ठ रचनाएं हैं वह सब प्रेम में असफल प्रेमियों ने की है। प्रेम ऊर्जा है, शक्ति है, प्रेम की ऊर्जा जहां भी होती है वही अपना सौंदर्य बिखेरती है । हिटलर जैसा तानाशाह शासक को कहा जाता है कि यदि उसे उसकी प्रेमिका का सानिध्य मिल गया होता तो इतना क्रुर नहीं होता।

ऊर्जा नष्ट नहीं होती बल्कि केवल उसके रूप में परिवर्तन किया जा सकता है ।‌प्रेम रूपी ऊर्जा को नष्ट करने की मूर्खता का ही दुष्परिणाम है कि यह दुनिया रहने लायक भी नहीं रही ।यदि प्रेमी प्रेमिकाओं को मिलने दिया जाता तो क्यों वह छुप-छुप कर मिलते ।

पुरुष की अपेक्षा स्त्री का शरीर जल्दी विकसित होता है। हाई स्कूल की कक्षा में पहुंचते हुए लड़कियां युवा हो जाती हैं लेकिन लड़के इतनी परिपक्व नहीं हो पाते। पहले के जमाने में तो इतना टीवी, मोबाइल, इंटरनेट आदि का प्रचलन गांव में नहीं था जिससे वह कुछ ना कुछ ऐसे दुष्प्रभाव से बचे रहते थे । मेरे बाबूगंज में आज भी टॉकीज नहीं बना है।

आज कल बच्चों में बढ़ती दुष्ट प्रवृत्तियों के कारण को देखा जाए तो वह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया प्रमुख दोषी है। दिन रात टीवी के सामने बैठकर आपका बच्चा लूट, हत्या, बलात्कार ,झूठ, फरेबी, मारधाड़ देख रहा है तो हम कैसे कल्पना कर ले कि हमारा बच्चा सच चरित्र बन जाएगा।

अब पुनः चलते हैं विद्यालय की ओर। विज्ञान में भौतिक विज्ञान संतोष कुमार जायसवाल सर पढ़ाते थे। जो कि बाद में प्राथमिक विद्यालय में सरकारी अध्यापक हुए। रसायन विज्ञान श्री कृष्णा राम मौर्य सर पढ़ाते थे। जो कि इफको में साथ ही ट्यूशन भी पढ़ाते रहे । आज उन्होंने अपना स्वयं का डिग्री कॉलेज, इंटर कॉलेज, पॉलिटेक्निक कॉलेज आदि खोल लिया है।

वे इस बात के उदाहरण है कि व्यक्ति के पास लगन और कुछ करने की चाहत हो तो एक न एक दिन वह मंजिल पाकर ही रहता है। पुरुषार्थ करना हमारा कर्तव्य है जिसे हमें हर संभव तरीके से करने का प्रयास करना चाहिए।

उनके विद्यालयों में आज 10000 की संख्या में बच्चे अध्ययन करते हैं । उनके सफल होने में एक बड़ा कारण यह भी रहा है उनके स्वयं की बहुत सी जमीन थी। राजनीतिक रूप से भी उनकी अच्छी पकड़ थी । भाग्य भी अनुकूल चल रहा था जिसके कारण वह सफल इंसान बन सके।

जीव विज्ञान उमाशंकर मौर्य सर पढ़ाते थे । बचपन में एक दो बार मैंने मेंढक का चीर फाड़ भी किया परंतु बाद में बंद कर दिया । इंटर में मैथ लेने के कारण सब छूट गया। वह बहुत अच्छा पढ़ाते रहे स्कूल छोड़ने के पश्चात वे राजनीति में आ गए । वह अपने गांव चिलौडा के प्रधान भी रहे।

सामाजिक विज्ञान शारदा प्रसाद शुक्ला जी सर पढ़ाते थे। वे दुबले पतले थे। वे बच्चों को कान बहुत उमेठते थे।

एक बार पढ़ाते हुए उन्होंने बताया कि एक बार क्या होता है कि एक बच्चे को चिट्ठी पढ़ने को दी ।चिट्ठी में लिखा था कि पिताजी अजमेर गए और उसने पढ़ा कि पिताजी आज मर गए । अब क्या होता है सारे घर में रोना पीटना मच जाता है। आज के बच्चों का यही हाल है।

इंग्लिश राम प्रताप पटेल सर पढ़ाते थे। वह इंग्लिश बहुत अच्छी प्रकार से पढ़ाते थे। पढ़ाते पढ़ाते अक्सर वह कुछ कहानियां भी बताने लगते थे जिससे कि बच्चे ऊबे ना।

हिंदी मुन्नी लाल यादव सर पढ़ाते थे। जिनका बेटा अजय भी हमारे ही क्लास में पढ़ता था। वह हिंदी को बहुत समझा करके पढ़ाया करते थे।

गणित को रामराज पांडे सर पढ़ाते थे। उन्हें गणित में महारत हासिल थी। सैकड़ो निरमेय प्रमेय उन्हें जबानी याद थे। रिटायर्ड होने के पश्चात उन्होंने योग साधना का मार्ग अपनाया और आज भी पूर्ण रूप से स्वस्थ हैं।
उसे समय भले हम बहुत डरते रहे हो परंतु अब जब भी विद्यालय जाता हूं या जब भी अपने गुरुजनों से मुलाकात होती है तो बहुत सम्मान पूर्वक बात करते हैं।

भाग-9

 

यादों का प्रवाह है कि रुकने का नाम नहीं ले रहा है । मैं वहां से हाई स्कूल करने के पश्चात इंटरमीडिएट गोमती इंटर कॉलेज फूलपुर से किया। गंगापार क्षेत्र का कहा जाता है कि वह सबसे पुराना विद्यालय है।

वहां पर मात्र लड़के ही पढ़ते थे लड़कियों को राजकीय बालिका इंटर कॉलेज अलग से बना हुआ था। यहां मैंने पहले तो जीव विज्ञान विषय लिया था । बाद में गणित बदलवा दिया।

मेरे गणित के अध्यापक राय साहब थे । वह गुलाब जैसे गौढ बदन के बहुत ही सुंदर थे। कुछ-कुछ नाटे कद के शरीर से थुल थुल थे। उनकी आदत पढ़ते पढ़ते बीच-बीच में कोई ना कोई चुटकुले सुनाने की थी । गणित जैसे नीरस विषय को पढ़ाते हुए जब देखे कि बच्चे अब पढ़ नहीं रहे हैं तो कहानी चुटकुलों का दौर शुरू हो जाता था।

जहां सीताराम सिंह इंटर कॉलेज के प्रधानाचार्य का वर्चस्व था। उनके नाम से बच्चे थर-थर कांपते थे । वहीं यहां के प्रधानाचार्य एलपी मिश्रा की बात को कोई नहीं सुनता था । वह एक ओर चिल्लाते रहते थे तो दूसरी और बच्चे निकल भागते थे। स्कूल के अध्यापक भी उनका कोई सम्मान नहीं करते थे । सब अपनी मर्जी के मालिक थे।

विद्यालय में कोई ज्यादा सख्ती नहीं थी। इसी बीच मुझे फिल्म देखने का चस्का लग गया था । मैं उपन्यास भी खूब पढ़ने लगा था। कोई भी फिल्में नहीं छोड़ता था। घर में छोटी सी किराने की दुकान थी । कभी-कभी मैं दुकान पर बैठता था ।

थोड़े बहुत पैसे चुराने से कभी नहीं बच पाया । एक तो घर से विद्यालय सात आठ किलोमीटर दूर था । हमारे गांव का दूसरा सहपाठी नहीं पढता था कि जो मेरी शिकायत कर दे। इसलिए फिल्मों के प्रति दीवानगी बढ़ती ही जा रहे थी।

इसी बीच उपन्यास पढ़ने का चस्का लग चुका था। एक-एक दिन में दो-दो उपन्यास पढ़ डालता था । उपन्यास मैं अर्धरात्रि में पढ़ता था या जब भैया नहीं रहते थे। मां को तो मालूम नहीं कि मैं क्या पढ़ रहा हूं क्या नहीं? भाभी भी अनपढ़ थी इसलिए मेरी ललक बढ़ती ही जा रही थी।

एक दिन सुबह के समय दिन चढ़ आया फिर भी मैं उपन्यास पढ़ता रहा। पीछे के घर की कोठरी में । भैया ने बाहर द्वार से बुलाया की जो पढ़ रहे हो लेकर आ। मैं छुपाना चाहता था लेकिन उन्होंने देख लिया। फिर मैं उपन्यास को लेकर बाहर आया भैया ने गुस्से में उपन्यास फाड़कर टुकड़े-टुकड़े करके मां के सामने फेंक दिया।

फिर गुस्से में कहने लगे कि देख ली क्या पड़ता है यह रात रात भर । फिर दो तीन थप्पड़ जड़ दिए गाल पर । मेरी आंखों से आंसू झरने लगे , फिर भी डर के मारे रो नहीं पा रहा था।

वैसे भैया जल्दी मुझे मारते नहीं थे उसका कारण था कि लोग कहेंगे कि देखो बिना बाप का है इसलिए मार रहा है। मां का मैं दुलारा बेटा था । इसलिए मार खाने से बच जाता था।

उस दिन के बाद मेरे बैग की तलाशी होने लगी जिससे उपन्यास नहीं पढ़ने में ही भलाई समझी। मैं उपन्यास खरीदता नहीं था बल्कि किराए पर लाता था । ऐसे बाजारू उपन्यासों से होता जाता कुछ नहीं बस टाइम पास की रहस्यात्मक कहानी गढ़ी रहती हैं।

अब तो चाह कर भी ऐसे उपन्यास पढ़ने की इच्छा नहीं होती । मैं ऐसे कई उपन्यास लेखक से मिल भी चुका हूं । कई ऐसे लेखक जिनका एक बार नाम चल गया फिर उनके नाम से दूसरों से लिखवा कर प्रकाशक एवं पूर्व लेखक नाम और शोहरत कमाते हैं । लेकिन लूटता है तो गरीब लेखक जो मजबूरी बस पैसे के खातिर अपनी कलम को बेचने के लिए उसे अभिशप्त होना पड़ता है।

भाग-10

मेरे बड़े भैया की जब शादी हुई थी तो मैं तीसरी कक्षा में पढ़ता था । उन्हीं के दो-तीन दिन के अंतर पर मझली बहन तीजा की भी शादी हुई। मेरे गांव में लड़कियों की शादी १५ -१६ वर्षों में कर दिया जाता था।

अभी भी गांव में बाल विवाह की स्थिति व्याप्त थी। जिसमें लड़के लड़की की शादी तो बचपन में कर देते थे परंतु गौना छः सात वर्ष बाद लाते थे। भैया की शादी में मैं बलहा बना था। उस समय पिताजी जीवित थे चूंकि घर में बड़े लड़के की बहू आ रही थी इसलिए रौनक ज्यादा थी।

उस समय गांव में शादी विवाह के पहले महीनों तक रात्रि में महिलाएं लोकगीत गाती थी ।जो कि सुनने में बहुत मधुर होते थे । कुछ महिलाएं गाने बजाने में बहुत माहिर होती थी। कुछ तो गाते गाते नाचने भी लगती थी।

उनकी वह सरलता अल्हड़पन की मस्ती देखते ही बनती थी। लेकिन धीरे-धीरे शहरों की हवा जैसे गांव को भी लग गई हो । गांव में अब धीरे-धीरे गाने बजाने की परंपराएं खत्म होने लगी है।

अब तो बस डीजे की धुन पर गला फोड़ू संगीत रह गया है। उसमें अल्हड़पन कैसे आ सकती है । आधुनिक लड़कियां तो ऐसे गीतों को पुराने जमाने की कहकर मुंह बिचकाने लगी हैं। उन्हें केवल डीजे की धुन पर कमर मटकाना ही दिखाई देता है।

मेरे बड़े भैया का बदन बहुत गठीला था । 100 किलो का वजन उठाकर फेंक देते थे । भैया को देखकर गांव की औरतें मां से कहती कि पता नहीं महजइनिया क्या अपने लड़कों को खिलावत है की मोटाई के कोल्हू जैसे होइ गंवा है। लेकिन मैं बचपन से शारीरिक रूप से बहुत कमजोर रहा।

मेरे भैया खाने-पीने के बहुत शौकीन रहे हैं। घर में भैंस थी। वह कभी ग्वाले को दूध नहीं बेचने देते थे । कहते थे कि मैं मेहनत करता हूं तो दूध भी पीने को ना मिले तो सब बेकार है।

कहते हैं कि परिस्थितियां बड़े बड़ों को तोड़ देती हैं। आज बड़े भैया में वह ताकत नहीं रही।
भैया की शादी में तांगा गया था बारात में । क्या बांका घोड़ा था कि पूछो ही मत। बारात घर से 40 कमी के लगभग दूरी पर जाने थे। बांका जवान एक बार दौड़ लगाई तो दुल्हन के घर पर ही जाकर रुका।

भारत में हिंदूओं की शादी होने के पहले महीना तक लड़के लड़कियों को सरसों को पीस कर सारे बदन पर मालिश की जाती थी । विशेष तौर पर लड़कों को ज्यादा । एक माह की मालिश के बाद लड़कों का मुरझाया चेहरा भी खिल जाता था। चेहरे के दाग, धब्बे, झुर्रियों का तो पता ही ना चलता था।

कभी-कभी हल्दी भी मिलाकर लेपन किया जाता है। हल्दी शादी विवाह में बड़ा ही शुभ माना गया है। स्त्री के प्रसव के उपरांत भी हल्दी के दूध के साथ गर्म करके अन्य मेवे वगैरा मिलकर दिया जाता है । कहा जाता है कि इससे बच्चे पैदा होते समय जो स्त्री के शरीर में खून की कमी आई है वह दूर हो जाती है।

वैसे लड़कों की मालिश उसकी बुआ करती हैं। लेकिन हमारी बुआ नहीं होने के कारण बड़ी दीदी ने भैया की मालिश की थी। बड़ी दीदी भैया से 10 वर्ष बड़ी होने के बाद भी आज तक अदब रखती हैं।

शादी विवाह के अवसर पर गांव में कुल देवता की पूजा की जाती है। मेरे घर में कुल देवता के रूप में गाजी मियां और बड़े पुरुष के रूप में पूज्य थे। उनकी पूजा कहां से कैसे प्रारंभ हुई इसके इतिहास में न जाते हुए हम यह जानने का प्रयास करते हैं कि भारत देश श्रद्धालुओं का देश है। कहते हैं कि मेरे पिताजी को वाणी सिद्धि थी ।

जब उनके शरीर पर देवता प्रकट होते थे तो जो भी पूछिए बता देते थे। गाजी मियां को लोग बकरा बकरी मुर्गा आदि की बलि चढ़ाया करते हैं।

कहते हैं कि किसी झूठ को यदि हजारों बार बोला जाए तो वह सत्य होने लगता है। यही बात हिंदू समाज का मजारों दरगाह आदि की पूजा करना है। हमारे गांव में हिंदुओं में कोई भी व्यक्ति ऐसा मिलना मुश्किल होगा जो कभी न कभी गाज़ी मियां की मजार पर नहीं गए हों।

हिंदूओं में जितना लोगों में मूढ़ता व्याप्त है उतना दूसरे किसी समाज में व्याप्त हो। बचपन में कहां जाता है कि मेरी एक महीना तक आंख नहीं खुली। बीमारी से पूरा शरीर सूखकर कांटा हो गया था ।

अम्मा बताती थी कि जब पिताजी के शरीर पर ऐसे देवता प्रकट होते थे तो कहते थे कि बच्चे को कुछ नहीं होगा । इसकी आंख खुलेगी और कुछ दिनों बाद मैं ठीक हो गया। बचपन की इस बीमारी का प्रभाव हमारे शरीर पर आज भी देखा जा सकता है।

भाग 11

शादी विवाह के पूर्व गांव में कुल देवता की पूजा की जाती है। मेरे घर में कुल देवता के रूप में गाजी मियां की पूजा की जाती रही। इनकी पूजा कहां से कैसे आरंभ हुई इसके इतिहास में न जाते हुए हम यह जानने का प्रयास करते हैं कि भारत देश श्रद्धालुओं का देश है।

कहते हैं मेरे पिताजी को वाणी सिद्ध थी। जब उनके शरीर पर यह देवता प्रकट होते थे तो जो भी पूछिए बता देते थे । इनको लोग बकरा ,बकरी, मुर्गा आदि की बलि चढ़ाया करते हैं।

पिताजी जब वर्ष में एक बार विशेष पूजा करते थे तो बकरा बकरी मुर्गा सभी की बलि देते थे, शराब भी चढ़ाते थे । हम भाई-बहनों में कोई भी मांस नहीं खाता था। अम्मा भी नहीं खाती थी। इसके लिए नाते रिश्तेदारों को बुलाया जाता था।

एक प्रकार से यह अंध परंपरा है जो कि गांव में आज भी चली आ रही है । पिताजी के पश्चात वैसे घर में कभी मांस मछली का प्रयोग नहीं किया गया। बड़े भैया ने पूजा करने का प्रयास भी किया लेकिन वह उनके शरीर पर नहीं आए । कहते हैं कि पिताजी तुम्हारे उनकी बलि देते थे तो तुम भी दो लेकिन भैया कहते हैं कि यदि मैं नहीं खाता हूं तो कैसे चढ़ाऊं।

कुल देवता के पूजन के उपरांत बारात गई । मेरे पिताजी के चेहरे पर खुशी देखते ही बनती थी । वह धोती कुर्ता पहनते थे ऊपर से सदरी (एक प्रकार की कोट) पहनते थे।

शादी में पुराने तरीके के बाजे वाले गए थे जो नाच नाच कर गाया करते थे । कभी-कभी विशेष कलाबाजियां भी दिखाया करते हैं। दुबराचार के पश्चात सभी ने भोजन किया।

हिंदू विवाहों में शादियों के कर्मकांड दो-तीन बजे रात्रि से शुरू होते हैं जो की तीन-चार घंटे तक चलते रहते हैं। पहले के पुरोहित बहुत शांत मन से पूजा पाठ करते रहे हैं । जजमानों के प्रति बहुत आत्मीयता रखते थे। वर और कन्या दोनों से संकल्प बुलाया जाता है ।

जिसका मुख्य सूत्र है कि अपने मन में कोई दुराव छिपाव नहीं रखेंगे । जो भी बात होगी पति-पत्नी आपस में उसे सुलझाने का प्रयास करेंगे। लड़की के लिए उसकी ससुराल ही अब उसका घर है । जो भी बात होगी पति-पत्नी आपस में ही सुलझाने का प्रयास करेंग। लड़की के लिए उसकी ससुराल ही अब उसका घर है । इसलिए मायके से मोह त्याग कर पति के घर में ही मन लगाना चाहिए।

सुबह नाश्ते के बाद मुंह दिखाई का कार्यक्रम हुआ। जिसमें घर की महिलाएं सीसे कंघी,तौलिया माला आदि दूल्हे को देती हैं। उसको विभिन्न प्रकार के इतर आदि लगाते हैं। दूल्हा किसी किसी महिला को आंचल पकड़ लेता था मुख्य रूप से सलहज का फिर कुछ बिना दिए नहीं छोड़ता है। यह परंपराएं मुख्य रूप से दोनों परिवारों में हंसी एवं आत्मिता को बनाए रखने के लिए किया जाता है।

इन क्रियाओं को विस्तार पूर्वक इसीलिए बता रहा हूं कि धीरे-धीरे जितना हम पाश्चात्य संस्कृत की ओर बढ़ रहे हैं वही हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को भूलते जा रहे हैं। जो मिट्टी की खुशबू परंपरागत शादी विवाहों में आती थी वह सुगंध जैसे खोती जा रही हैं। यदि उन परंपराओं को जैसे लगता है कि यदि बचाया नहीं गया तो भारत का मूल अस्तित्व ही समाप्त होकर निश्प्राण हो जाएगा।

मेरी भाभी गौर वर्ण की दुबली पतली कद की बहुत सुंदर हैं। वे अनपढ़ हैं अक्षर भी नहीं पहचान पाती लेकिन दिल में चलने वाले अक्षरों को बखूबी पहचान लेती हैं।

उस समय मैं बहुत छोटा था। वह बच्चों जैसा प्यार करती थी। वह भोजन बनाती रहती और मुझे पास में बैठा कर दुनिया भर की कहानी सुनाया करती। अधिकांश बेतुकी बातें होती थी। मैं कुछ समझता कुछ नहीं लेकिन हूं , हां करता जाता।

मां डाटती के पढ़े लिखेगा भी की वहीं बैठा रहेगा। लेकिन भाभी बिना भोजन खिलाई नहीं आने देती । कैसे-कैसे वे बचपन में अपनी सहेलियों के साथ हठखेलियां करती थी सब बतातीं थी । कोई भी बात मन में नहीं छुपाती थी।

उनके आने से घर में जैसे रौनक आ गई हो। वह सब को खुश रहे ऐसे ही काम करती थी।मेरे भैया भाभी से बहुत प्रेम करते थे। यदि भाभी मायके चली जाती तो भैया दो-तीन दिन में ही पहुंच जाते क्योंकि पास में मझली दीदी का भी घर है जिससे उनकी चोरी छुप जाती थी।

बड़े भैया और मझली दीदी में खूब पटती थी। दीदी कहती है कि मेरे भाई भले गरीब हैं परंतु उनके जैसा दुनिया में ढूंढे नहीं मिलेगा। बड़े भैया भी सभी बहनों को कुछ भी बात हो तुरंत उनके ससुराल जाते हैं। उनका अधिकांश समय बहनों के सुख-दुख के कामों में ही खर्च हो जाता है।

जब मैं छोटा था तो तीनों भाई एक ही चारपाई पर लेटते थे ।दोनों भाइयों के बीच में मैं घुस जाता था । उस समय कितना प्यार था भाइयों में जिसकी कल्पना नहीं कर सकते। मां जब भोजन बनाती तो जैसे ही एक रोटी भी बनाई की बुला लेती थीं खाने के लिए। एक-एक रोटी बनाती जाती थी और परोसती जाती थी ।वह स्वर्गिक सुख काश एक बार फिर लौटा आता।

मां के हाथ की बनाई गरमा गरम रोटियां का स्वाद हम पांच सितारा होटल में हजारों रुपए खर्च करने के बाद भी नहीं पा सकते । प्रभु सबको मेरी जैसी मां दें। मां का प्यार ही वह औषधि है जो शोक संतप्त मानव को रोगों से मुक्ति दिला सकता है।

आज हम भाइयों के पास सब कुछ है लेकिन कुछ नहीं है तो मां। अम्मा जब से गई है जैसे जीने की सुगंध ही खत्म हो गई हो। जिंदगी में आनंद तभी तक रहते हैं जब तक मां-बाप का साया सिर पर होता है। उसके बाद तो जिंदगी बस काटनी पड़ती है। जिंदगी का रस जैसे खो सा जाता है।

भाग -१२

मैं विद्यालय के किसी भी कार्यक्रम में हिस्सा नहीं लेता था बचपन में मुझे मंच पर जाने पर डर लगता था मुझे याद नहीं है कि मैं कभी कोई वार्षिक उत्सव में भाग लिया हो परंतु पढ़ने लिखने में औसत था कभी ज्यादा नंबर आए इसके लिए परेशान नहीं हुआ स्वयं तो मैं गाने नहीं गए पता लेकिन दूसरों से सुना बड़ा अच्छा लगता था।

जिस व्यक्ति में जो कमी होती है उसे वह दूसरों में खोजने का प्रयास करता है मेरे क्लास में आनंद अजय बहुत अच्छा गाते थे छात्राओं में एक किरण चौधरी थे उसका स्वर इतना सुरीला था कि पूछो ही मत उसके गए गए जीत के बोल मुझे अब तक याद हैं। मेरे भारत माता की शान निराली है हर तरफ खुशियों के बारिश होने वाली है गाड़ी हो या नेहरू हो या सुभाष चंद्र वरदानी हो।

सीताराम सिंह इंटर कॉलेज में पिकनिक कार्यक्रम की यादें तो फिल्म की भांति जैसे आंखों के सामने नाच रहे हैं पिकनिक का कार्यक्रम पास के चीलोदा गांव में उसर क्षेत्र में था गांव की ओर से मैं अकेला था परंतु फिर भी साइकिल में खाने बनाने के सारे बर्तन लेकर पहुंच गया वहां का नजारा देखते ही बनता है जिधर देखो उधर चुल ही फुके जा रहे थे किसी की सब्जी कच्ची रह गए तो किसी में नमक ज्यादा हो गया लेकिन सभी बनाने में जुटे हैं पानी गुट हुए मेरे आते में पानी ज्यादा गिर गया अब सारे पाइथन रूप में बचाए आते मिलने के बाद भी अशोक नहीं रहा था।

2 से लेकर किसी तरह बनाया मेरे साथ में किसी लड़की की कोई टोली नहीं थी जिनके साथ लड़कियां थी वह बहुत अच्छी तरह से बना रहे थे मेरी तरह जिनके साल लड़कियों की टीम नहीं थी सभी में कुछ ना कुछ कमी रही जाती थी।
परंतु जो लड़कियां खाली थी वह किसी न किसी की मदद में लग जाते थे मेरा आटा गीला होने के कारण सर हथेली में लपट गया था पूरी भी नहीं बन पा रहे थे मन में आ रहा था कि कोई सहायता कर दे तो अच्छा रहे।

मुझे परेशान देखकर एक बहन को जैसे दया आ गई वाइफ को की कॉलोनी से आई थी उसके साथ उसका भाई भी पड़ता था दोनों पढ़ने में बहुत होशियार थे उसकी सहायता किसी प्रकार भोजन बना उसकी हेल्प करना मुझे बहुत अच्छा लग रहा था अब मेरी सारी रसोई पर उसने कब्जा जमा लिया था वह इतनी सतर्कता से जल्दी-जल्दी पूरियां काट रहे थे कि मैं उसकी पूर्ति देखता रह गया।

मेरे मन में है विचार आ रहे थे कि काश ऐसी पिकनिक का प्रोग्राम रोग होता तो मैं आते जिला रोज करता और यह मेरी सहायता करते वह भोजन बनाती जाती थी और डांटती भी जाती थी तुम लड़कों को आखिर क्या करना आता है ठीक से भोजन भी नहीं बना सकते।

उसकी डांट भी इतनी प्यारी लग रही थीकि जैसे भजन सुना रहे हो अध्यापकों का भजन कुछ तो जिन बच्चों ने अच्छा बनाया था वहां से आया और कुछ अलग से भी बना लिया था।

बच्चों में बोर्ड मचे थे कौन-कौन गुरु जी लोगों को खिला है सभी अध्यापक थोड़ा-थोड़ा लेकर छोड़ देते थे उसे तो कल सुख की कल्पना करना कटनी है वह आनंद वह मस्ती फिर कभी जीवन में मिल पाएगी कि नहीं कहना मुश्किल है ताश पिकनिक रोज मनाई जाती तो क्या बात होती।

भाग -१३

इंटरमीडिएट करने के पश्चात घर वालों की इच्छा थी कि मैं इंजीनियरिंग की तैयारी करूं परंतु पारिवारिक परिस्थित ऐसी थी कि ठीक से खाने रहने को व्यक्ति को उपलब्ध हो जाए यही बहुत था। दोनों बड़े भाई पढ़ाई छोड़कर काम धंधे में लग गए थे । उनकी इच्छा थी कि चाहे जैसा भी हो बाबा (मेरा घर का प्रिय नाम )को पढ़ाया जाए। एक दिन मां से बड़े भैया ने पूछा कि बताओ क्या करें ।

मां ने कहा -“देखो जैसे हिम्मत हो करो अब मैं क्या जानू मुझे तो कमा कर देना नहीं है कामना तो तुम ही लोगों को है।”
भैया ने कहा -“सबका अपना-अपना भाग्य होता है। यदि बाबा के जीवन में पढ़ाई लिखी है तो उसे कोई रोक नहीं सकता । ऐसा करते उसका एडमिशन शहर में करवा दिया जाए।

अब तक मैं गांव में रहा था। अब शहर में कमरा लेकर रहने लगा। मुझे भोजन बनाना तो आता नहीं था। पड़ोस के एक भाई के रिश्तेदार विजय कुमार पटेल को पार्टनर बनाया। वह बहुत अच्छे इंसान थे।

वह मेडिकल की तैयारी करते थे और मैं इंजीनियरिंग का। इसलिए भौतिक और रसायन विज्ञान विषय दोनों के मिलते थे। अक्सर वे मुझे पढ़ाते थे । कमरे का किराया ₹400 था ₹30 बिजली का बिल लेते थे । इस प्रकार 430 रुपए में से आधा ₹215 देना पड़ता था।

इसके अलावा भी शहर में रहने के अनेकों खर्च थे। गांव में जहां बहुत सी चीज वैसे ही मिल जाती थी वहीं शहर में पग -पग पर पैसों की जरूरत होती थी। सबसे ज्यादा खर्च दैनिक भोजन में होता था।

हम लोग जो भी सामान आदि खरीदते थे उसे एक डायरी में नोट करते जाते थे। महीने के अंत में उसका हिसाब कर लिया जाता था । जिसका ज्यादा निकलता उसको बकाया दे दिया जाता।

मेरा कमरा शोहबतिया बाग मोहल्ले में था । जहां से घूमने के लिए संगम तट की तरफ आराम से जाया जा सकता है । मेरी आदत प्रकृति के खुले आसमान में टहलने घूमने की ज्यादा थी।जब भी मौका मिलता जरूर जाते थे।

संगम तट तक प्रतिदिन नहीं जाया जा सकता परंतु उसके नजदीक ही बहुत बड़ा खुला क्षेत्र है, जहां शहर के लोग प्रातः भ्रमण के लिए आते हैं। शहर में पढ़ने वाले विद्यार्थी के मन को थोड़ा पढ़ाई लिखाई से सुकून मिल सके इसलिए टहलना स्वभाव बना लिया था।

वैसे भी प्रातः भ्रमण स्वास्थ्य के लिए बहुत फायदेमंद होता है। ऑक्सीजन शुद्ध मिलती है जिससे दिन भर ताजगी के साथ बिताया जा सकता है।

मैं इंजीनियरिंग की कोचिंग करना चाहता था इसलिए लोगों की सलाह थीं कि रेगुलर किसी जगह प्रवेश न लिया जाए । कई लोग इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पत्राचार विभाग से बीए बीकॉम कर रहे थे । मैंने भी बी ए में प्रवेश ले लिया । हमारे विषय थे – हिंदी, शिक्षा शास्त्र और दर्शनशास्त्र।

पत्राचार कार्यालय से नोट मिल जाया करता है। जिसे पढ़कर परीक्षा दिया जा सकता है। जो विद्यार्थी किसी कंपटीशन की तैयारी करते हैं उनके लिए पत्राचार द्वारा पढ़ाई करना सुविधाजनक होता है क्योंकि मार्कशीट इलाहाबाद विश्वविद्यालय की ही मिलती है। जिसमें रेगुलर ही लिखा होता है।

इलाहाबाद में मेडिकल इंजीनियरिंग के साथ ही अन्य राजकीय सेवा की परीक्षाओं जैसे आइएएस पीसीएस रेलवे बैंक आदि के लिए भी अनुकूल है। बड़ी मात्रा में अन्य जिलों से विद्यार्थी आकर यहां रहकर तैयारी करते हैं।

देश के अलावा प्रमुख रूप से बिहार राज्य के विद्यार्थी यहां बड़ी संख्या में रहते हैं। इलाहाबाद शहर के लोग जिन्होंने दो चार कमरा बना लिए हैं एक दो कमरे किराए पर उठाकर घर का खर्चा आराम से चला सकते हैं।

विश्वविद्यालय में हॉस्टल भी है परंतु इतनी बड़ी संख्या में तो लोग वहां रह नहीं सकते इसलिए कमरा लेकर रहना ही पड़ता है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के आसपास जैसे तेलियरगंज, कीटगंज ,बघाड़ा, अल्लापुर ,दारागंज सोहबतिया बाग आदि हर मोहल्ले में विद्यार्थी रहते हुए मिल जाएंगे।

 

भाग -१४

 

शहर में रहने की जो सबसे बड़ी समस्या थी वह तो हल हो चुकी थी । अब थी पढ़ाई लिखाई की। बीए में प्रवेश ले लिया था। इंजीनियरिंग के लिए यह विचार किया गया कि किसी बड़े इंस्टिट्यूट में प्रवेश लेने से पहले किसी ट्विटर से पढ़कर सेल्फ स्टडी कर लिया जाए तो अच्छा रहेगा।

इसलिए सेल्फ स्टडी करने लगा। अब विद्यालय तो जाना नहीं रहता था आखिर कोई पढ़ें तो कितना पढ़ेगा परंतु यहां और तो कोई काम ही नहीं था। पढ़ाई करो , भोजन बनाओ खाओ।

जहां हॉस्टल में विद्यार्थियों पर एक नियम होता था परंतु कमरे में रहने वालों के लिए तो स्वयं में नियम कानून बनाने पड़ते हैं कि कैसे क्या कब करना है ?

वैसे कमरा लेकर रहने में जो आनंद है वह प्रतिदिन के आने-जाने में नहीं है।
वैसे मेरा घर शहर से नजदीक ही है । बहुत से विद्यार्थी प्रतिदिन पढ़ाई के लिए आते हैं। और सायं काल अध्ययन कर लौट जाते हैं। उनका अधिकतर समय यात्रा में ही खर्च हो जाता है। कमरा लेकर रहने के एक बढ़ा फायदा होता है कि आपको सारी जानकारियां होती रहती हैं। विभिन्न प्रकार के दोस्तों के साथ बातचीत आप अपने विषय को लेकर कर सकते हैं।

लेकिन कमरे लेकर रहने के नुकसान भी कम नहीं हैं। एक तो यहां आपको कोई रोकने टोकने वाला नहीं होता है। घर में तो कम से कम यह तो घर वालों को खबर रहती है कि आप क्या कर रहे हैं? कहां आ जा रहे हैं? परंतु यहां ऐसी तो कोई बंधन रहता नहीं।

‌‌कई बार विद्यार्थी कभी-कभी गलत सोहबत में पड़कर बिगड़ भी जाते हैं। नशा की लत पकड़ना सामान्य सी बात है। दोस्तों के साथ मटरगश्ती करना गपबाजी में समय गवाना , पार्टी बाजी में मां-बाप के मेहनत की कमाई को फूकना सामान्य बात है।

मेरा पार्टनर कुछ अजीब प्रकार का था । जब उसकी मौज आती थी तो पढ़ता था। नहीं तो बातचीत ही करता रहता। वे गुटखा पान भी खाते थे। सिगरेट भी पीते थे लेकिन कभी मुझे दबाव नहीं बनाया कि मैं भी पीयू । बल्कि वहीं इसके नुकसान ही बताया करता कि कितना पैसा फालतू में खर्च हो जाता है।

मैं नशा तो नहीं किया परंतु फिल्म देखने का शौक बना रहा। अब घर से तो सीमित पैसे ही मिलते थे। शहर की टाकीजो के टिकट महंगे होते थे । इसलिए कभी कभार ही देखते थे।

मेरे पड़ोस में तीन सगे भाई रहते थे। जो कि तीनों लोग आईएएस पीसीएस की तैयारी करते थे। सबसे बड़े भाई के तो बालों में सफेदी ही आने लगे थे। उनकी उम्र 30- 32 वर्ष रही होगी उनके सामने मैं बच्चा था।

लाल बत्ती का ख्वाब बड़ा आकर्षण होता है। हो सकता है कि इस बार हो जाए इसी इंतजार में वर्ष के वर्ष बीतते जाते हैं? जब तक अंतिम चांस भी समाप्त नहीं हो जाता लगे रहते हैं तैयारी में।

एक प्रकार से यह किसी योग साधना से कम नहीं है । आखिर विद्यार्थी तप ही तो करता है। जिसमें असीम धैर्य चाहिए ।जीवन लक्ष्य पाने में अधिकांश विद्यार्थियों का जिनका जीवन लक्ष्य स्पष्ट नहीं होता वह भटकते रहते हैं।

जिसने जो भी सलाह दी उस तरफ अपने को मोड़ देते हैं । कभी यह किया तो कभी वह किया । लेकिन सफलता का असली स्वाद वही चख पाता है जो एक दिशा में ही अपनी सारी ऊर्जा को लगा देता है।

इसमें विद्यार्थियों की भी ज्यादा गलती नहीं है । भारतीय सामाजिक ढांचा ही ऐसा बनाया गया है कि यहां बच्चों की मर्जी से जीवन लक्ष्य नहीं निर्धारित किए जाते बल्कि पड़ोस में देखकर किया जाता है कि यदि पड़ोस का लड़का इंजीनियर डॉक्टर की तैयारी कर रहा है तो तुम क्यों नहीं करते।

ऐसी स्थिति में बच्चों की सारी रुचियों अभिरुचियों को नजर अंदाज कर दिया जाता है। ऐसे में बालक अभिभावकों के ख्वाब को पूर्ण करने के लिए मात्र बंधुआ मजदूर बनकर रह जाता है। जिसका एकमात्र जीवन का उद्देश्य रहता है कि अभिभावक जिसमें खुश रहे वह कार्य करना।

ऐसे में बालकों की प्रतिभा भी कभी-कभी कुंठित हो जाती है । मैं अपने जीवन में आज पीछे मुड़कर देखता हूं तो यही दिखाई पड़ता है कि मेरे व्यवहार को न कभी यह नहीं जानने का प्रयास किया कि मैं क्या करना चाहता हूं। उन्हें आज भी इस बात का मलाल है कि मैं इंजीनियर नहीं बन पाया।

मैं अपनी अभिरुचि के बारे में आपसे चर्चा करना चाहूंगा ।जिससे यह समझा जा सके कि मेरे जीवन में इतने मोड़ कैसे आए कि आज भी मंजिल की खोज में भटक रहा हूं ? 10 वर्षों पूर्व जिस स्थिति में था उसी में आज भी हूं। हालांकि सोच , विचार , अनुभव आदि जरूर बढ़े हैं।

मेरी बचपन से ही रुचि आध्यात्मिक साहित्य पढ़ने की रही है । जिसे मैं बहुत लगन से पढ़ता था । जैसा कि पूर्व के विषयों पर चर्चा कर चुका हूं कि शब्द ब्रह्म जैसी अध्यात्मिक पत्रिका नवी कक्षा से ही पढ़ रहा हूं। ऐसी जो भी पुस्तक मिलती मैं पढ़ता रहता।

वैसे इसमें बड़े भैया की भी गलती नहीं है । वह तो ज्यादा जानते नहीं थे कि क्या पढ़ाई होती है? बस लोगों ने जैसा बताया वैसे ही सलाह देते गए इसलिए उनको ही मात्र दोषी नहीं मान सकता।

मुझे तो लगता है की बचपन से ही विशेष रूप से इंटरमीडिएट की कक्षाओं के बाद कोई अच्छा सलाहकार मिला होता तो जो अंदर छुपी हुई प्रतिभा को समझ सका होता तो आज मैं ऐसी स्थिति में ना होता।

लेकिन कहते हैं कि ना व्यक्ति को ठोकर खाने के बाद भी यदि समझ आ जाए तो अच्छी बात है। मैं आज भी अपनी मर्जी से नहीं जीवन गुजार पा रहा हूं। मैं वही कर रहा हूं जैसा समाज के लोग चाहते हैं । बल्कि ऐसा नहीं की जैसा मैं स्वयं को बनाना चाहता हूं।

मैं अभिभावकों को यही सलाह देना चाहूंगा कि वह अपने बच्चों को समझने का प्रयास करें। उनकी रुचियां को समझें और इस दिशा में उसे बढ़ाने दे । हालांकि उसे बताते रहे की रुचियां के साथ जीवन में बेसिक पढ़ाई भी जरूरी है जिसे पढ़ने के बाद अपनी रुचि की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है।

भाग- १५

मनुष्य के जीवन में अन्न का विशेष प्रभाव पड़ता है। हराम की कमाई खाने वाला इंसान दुनिया में कोई श्रेष्ठ कार्य नहीं कर सकता है।

मुझे गर्व है इस बात का की मेरे भाइयों ने मुझे हाड़ मांस तोड़कर कड़ी मेहनत की पसीने की कमाई ही मुझे खिलाएं । आज मैं हमारे अंदर जो पवित्रता का दिव्य भाव है वह सब उसी का नतीजा है।

एक घटना आंखों के सामने नाच रही है । एक बार मुझे पैसे की सख्त जरूरत थी परंतु घर में भैया के पास उस समय नहीं थे।
उन्होंने कहा कि दो-चार दिनों में व्यवस्था कर दूंगा। परंतु मैंने आव देखा न ताव क्रोध में जो बनियान पहने था उसको टुकड़ों में चीड़ फाड़ कर फेंक दिया।

मेरे भाई ने मुझे मारा तो नहीं परंतु अफसोस के साथ कहा कि अभी तू नहीं जानता कि पैसा कैसे कमाया जाता है जब तू कमायेगा तो पता चलेगी की कैसे आता है पैसा।

भैया की बातें आज भी याद आती है कि पैसा कमाने के लिए सामान्य मनुष्य को कितना पापड़ बेलने पड़ता है तब जाकर उसकी जेब में कुछ पैसे इकट्ठे हो पाते हैं।

भैया गल्ले का व्यवसाय करते थे। गांव से अनाज खरीद कर उसे बाजार में बेचते थे। उससे जो भी कुछ पैसे मिल जाते हैं उसी से घर का खर्च चलता। उसी में से मेरी पढ़ाई के लिए भी कुछ पैसे बचाकर मां को दे देते।

आजकल किसान भी चालाक हो गए हैं। वे बाजार भाव का पता किए रहते हैं। इसलिए आप उन्हें ज्यादा बेवकूफ नहीं बना सकते । चार पैसे ज्यादा बच जाए इसलिए भैया अनाज को ट्राली में न लादकर साइकिल से ही बाजार में ले जाकर बेचते।
कभी-कभी तो दो कुंतल 200 किलोग्राम भी रख लेते थे साइकिल में । हमारे भैया का शरीर हमारी तरह कमजोर नहीं बल्कि बहुत गठीला था । 100 किलो का भरा हुआ उठाकर फेंकने की क्षमता रखते हैं।

पिताजी के गुजर जाने के पश्चात परिवार की जिम्मेदारियां ने उन्हें मजबूर कर दिया । नहीं तो क्या मजाल किसी की उनसे हाथ मिल सके। मेरी भाभी भी बहुत अच्छी इंसान है । भैया के पैसे देते समय कभी भी उन्होंने नहीं रोका की क्यों दे रहे हो । तनिक जरा अपने बच्चों का ख्याल रखो। भैया को गांव में उनके त्याग के कारण कहते हैं कि ऐसा भाई दुनिया में ढूंढे नहीं मिलेगा। आखिर समाज में आज के जमाने में कौन किसी का कहां हुआ है? सब स्वार्थ में खोए हैं लेकिन देखो तो आज भी वह भाई की सहायता में लगा हुआ है।

मेरे छोटे भैया भी कभी इंकार नहीं किया पैसे देने में। कभी-कभी मुझसे कहते हैं देखो इस महीने का सारा खर्च मुझसे ले लेना । नहीं तो मां से पूछते कि कितना पैसा चाहिए बाबा को। और वे मां को दे देते। मां वह पैसे लेकर बड़े भैया को जो दे देती दोनों मिलाकर दे देती।

मैं जो कुछ भी हूं उसमें मेरी मां भाई बहन की वजह से ही हूं। मेरी बहने भी समय-समय पर मुझे पैसे से सहायता करती रही है।वह भी जीजा जी इसे छुपा कर की कहानी वह जान न जाए कुछ तो बचा कर रखती जाति की मायके जाएंगे तो लिए जाएंगे। आखिर मेरा भी तो यह हक बनता है कि नहीं कि मैं भी अपने भाई के लिए कुछ करूं।

दीदी लोग जब आती तो उनकी गुप्त गुल्लक देखते ही बनती थी । नोटों को ऐसा मोड़ तोड़कर रखी रहती की जैसे कूड़ा कटकर हो । फिर बड़े प्रेम से गिनती और सब मां के हाथ में सुपुर्द कर देते और कहती देखो जब भी बाबा को जरूरत हो देती रहना।मां उसमें से अपने लिए एक भी पैसा नहीं खर्च करती बल्कि सब बचा कर रखती।

कई बार जब पैसों की जरूरत मुझे पड़ी यदि किसी कारण भैया के पास पैसे नहीं रहे हो तो वह मां की गुप्त गुल्लक खुल जाती थी।कभी-कभी वह बहुत जरूरी होने पर भैया को भी दिया करती।

मुझे याद आ रहा है कि इंजीनियरिंग की कोचिंग के लिए एक मुस्त ₹5000 की आवश्यकता थी । भैया के पास बैलेंस इतना नहीं था कि वह दे सके। लेकिन यह भी चाहते थे कि भाई की पढ़ाई रुके ना।

मझली बहन शकुंतला दीदी से जब कहा तो उन्होंने बिना कुछ कहे जीजा जी से पूछे बिना ही ₹5000 दे दिए। बाद मे इसके लिए ताने भी खाने पड़े होंगे परंतु ऐसी बहनें भी केवल भारत जैसे देशों में ही पाई जा सकती हैं। धन्य है भारत माता जो आज भी ऐसी त्यागी महिलाओं को जन्म देकर अपने को धन्य महसूस कर रहे हैं।

एक दिन दीदी फोन पर मुझे कहने लगी की तू नहीं जानता कि लोग कितना ताना मारते हैं मुझे। कहते हैं कि इसके मायके में ठीक से ना रहने को है , ना खाने को तीन-तीन सांड है लेकिन एक घर भी नहीं बना सके।
कहते-कहते दीदी सुबकने लगीं । उनके दुख को अनुभव किया जा सकता है बस उसे शब्दों में व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है जिसके माध्यम से उसे व्यक्त कर सकूं।

प्रभु मेरे भाई बहनों जैसे ही सबको भाई बहन दे। ऐसी ही बातें अन्य बहने भी कह चुकी हैं। अब उनके दुख को कैसे दूर किया जाए सोच रहा हूं । यदि जीवन में इतना दुख कष्ट ना हुआ होता तो आपके सामने मैं यह आत्मकथा ना लिख रहा होता।

आखिर हमारी उम्र ही क्या है जो जिंदगी के अनुभव आपके सामने बयान करू परंतु इतनी कम उम्र में है जिंदगी की वास्तविकता क्या होती है मैं समझ गया हूं।

अक्सर लोगों के चेहरों पर मास्क लगा हुआ होता है जो कि दिखते कुछ है और होते कुछ। चेहरों के पीछे छिपे चेहरों की सच्चाई को देखकर दिल कभी दहल जाता है। कभी प्रेम से भर भी जाता है । समाज में अच्छे बुरे दोनों प्रकृति के लोग होते हैं।यह हमारे पर निर्भर है कि हम किसे अपनाते हैं।

भाग १६

भाई बहन का प्यार भी अटूट होता है । जिसे पवित्र बंधनों में बांधने के लिए राखी जैसा पवित्र त्यौहार मनाया जाता है।
जैसा कि मैं पूर्व में बताया भी कि मैं परिवार में सबसे छोटा हूं। इसलिए सभी भाई-बहन मुझे कुछ ज्यादा ही प्यार करते हैं ।बड़ी बहनों के तो हम बच्चों के जैसे हैं।

मैं जब राखी में दीदी आती तो मैं यही कहता की मैं जब कमाने लगूंगा तो आप सबको एक साथ ही खूब दूंगा । किसी को सोने जंजीर बनाने को कहता तो किसी को अगुंठी।

मेरी बड़ी बहन सीता दीदी के परिवार की भी आर्थिक हालात अच्छे नहीं हैं । चार लड़कियां एक लड़का है। मेरा भांजा मुझसे उम्र में बड़ा है। कमाई भी इतनी नहीं हो पाती है कि जिससे ठीक प्रकार परिवार का खर्च चल सके।

मैं दीदी से यही जब वह राखी बांधने आती तो कहता कि मैं कमाने लगूंगा तो तुम्हारे बेटियों की शादी कर दूंगा परंतु आज तक मैं इतना नहीं कमाया की चार पैसे बचा कर रख सका होता । जो कि प्रतिकूल परिस्थितियों में काम आता है फिर भांजियों की शादी कैसे करता?

किसी भी प्रकार से दीदी ने बेटियों की शादी कर दिया है। सभी भाजी हंसी-खुशी से रह रही हैं।
सपना भांजी तो बचपन से ही मेरे घर में ही रहीं हैं। उसे मैं ही नहला धुला के स्कूल भेजता था। धीरे-धीरे जब वह शादी योग्य हो गई तो इच्छा हुई कि उसका विवाह अपने घर से करूं परंतु नहीं कर सका। आज उसके एक लड़का और एक लड़की है। कभी जब मिलती है तो कहती है-” मामा अभी आपने अपना वादा पूरा नहीं किया। मैं सुनकर मुस्कुरा देता हूं । बात टालने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं है मेरे पास।

मनुष्य को यदि कोई सबसे अधिक कठिन कार्य लगता है तो वह है भोजन बनाना। अब तक घर में मां के हाथों का बनाया गरमा गरम भोजन खाने को मिलता था लेकिन अब तो यदि पेट की भूख मिटाने है तो भोजन बनाना ही पड़ेगा।

बचपन में मुझे इतना क्रोध आता था कि यदि भोजन में कुछ कमी दिख जाए तो थाली बाहर फेंक देता था । जल भुनकर कहता है कि क्या ऐसे भोजन बनाया जाता है। अब तक तुम लोगों ने भोजन बनाना भी नहीं सीख सके।

पहली बार आता गूंथने लगा तो मां का चेहरा सामने घूम गया की मां होती तो साथ में कितना अच्छा होता । आंखों से मां की याद करते-करते लाल हो गए ।मेरी मां कभी भी घर से बिना खाए नहीं जाने देती थी।

वह कहती -“बेटा घर से खा पी करके निकलोगे तो बाहर भी मिलेगा नहीं तो बाहर भी भूखे रह जाना पड़ेगा “।
मैंने कई बार अनुभव भी किया कि जब घर से बिना खाए जाता तो दिन भर कहीं कुछ खाने को नहीं मिलता था।
ठंड के दिनों में भी घर में कंडे जलते रहते उसी में आटा गूथ कर भंवरी( मोटी रोटी ) बना देती । वह मुझे बहुत प्रिय थी । उसे ही नमक मिर्च अचार आदि के साथ खाकर मैं चला जाता था। लेकिन कभी भूखे पेट गया हूं ऐसा ध्यान में नहीं आता है।

घर में कभी देर से भी लौटूं तो मां कुछ ना कुछ बनाकर खिलाएं बिना नहीं सोने देती।कुछ ना सही तो रोटी बनाकर दूध के साथ ही खाने को दे देती ।

वह कहां करती-” बेटा ! भूखे पेट नींद नहीं आती ।पेट में चूहा कूदते रहे तो बताओ कैसे नींद आएगी।”
फिर उसमें और आटें डालकर कुछ सूखा किया परंतु आटा पूरी तरह से नहीं सूख सका। रोटी बनाया तो कभी चौकोर बनती तो कभी पंच कोर परंतु सीधी गोल आकार की बन नहीं पाती थी इसके लिए भी डांट पड़ती।

लेकिन एक बात थी मेरा पार्टनर डाटता तो भले था पर वह दिल का बड़ा अच्छा था। शुरू-शुरू में कई दिनों तक उसने बना कर खिलाया फिर मैं धीरे-धीरे सीखने लगा।

पहली बार ऐसे ही जब सब्जी बना रहा था तो जल गई । पूरे कमरे में जलने की भयानक गंध फैल गए । उस समय पार्टनर बगल के कमरे में बातचीत कर रहा था । जल्ती सब्जी देखकर उसका पारा फिर गर्म हो गया। उसके चेहरे को देखकर मैं सहम गया।

उसने फिर सारी सब्जी फेक कर दूसरी बनाई । मुझे साथ बैठा कर दिखाने लगे कि देखो कितना तेल गर्म हो जाए तो प्याज मिर्च डालना चाहिए। फिर जलने ना पाए उसके पहले ही सब्जी दाल देनी चाहिए । फिर थोड़ा चलाने के बाद मसाला डालना चाहिए।

वह पहले छौका लगाने के बाद जल में घोलकर मसाला डालते थे । मसाले को पकाने के पश्चात सब्जी डालते । ऊपर से सब्जी पकने को होती तो लहसुन मसल कर डाल देते जिससे सब्जी की खुशबू बढ़ जाते हैं।

लेकिन कभी आटा गीला होने सब्जी जलने या नमक ज्यादा पड़ने आदि कमियों होती रही परंतु अपने हाथ की बनाई जली रोटी भी स्वादिष्ट लगती है। जो भी बन जाता खा लेते। अब तो भोजन में जैसे कमियां ढूंढने की आदत ही छूट गई।
कभी-कभी नमक ज्यादा हो जाता तो उसमें पानी ऊपर से मिलाकर खा लेता। इससे दाल या सब्जी का स्वाद बिगड़ तो जाता है परंतु खाने के अलावा दूसरा कोई चारा भी तो नहीं था।

जो लोग घर में काम करने वाली स्त्रियों को कहते हैं कि तुम करती क्या हो घर में बैठकर बस खाना बनाओ खाओ बर्तन धुलो। भारत में गृह कार्य को कोई ज्यादा तवज्जो नहीं दी जाती है।

घर में स्त्री का उतना ही महत्व है जितना कि किसी कंपनी में मैनेजर का होता है। घर की गृहणी को ही यह मालूम होता है कि किसको क्या पसंद है वह सब को खुश करने का हर संभव प्रयास करती है।

जब से स्त्री घर के बाहर काम करने लगी घर जो कभी स्वर्ग था वह नरक बन गया है। कहते हैं कि जैसा खायें अन्न, वैसा बने मन । काम पर जाने वाली स्त्री कभी शांत मन से भोजन बनाकर नहीं खिला सकतीं हैं। इस प्रकार स्त्री का व्यक्तित्व भी दो पाटों में बटकर रह गया।

मनुष्य को जब घर के खाने से शांति नहीं मिली तो वह बाहर होटल में खाने-पीने लगे।
पूज्य आचार्य महाप्रज्ञ जी कहते हैं कि-” दुनिया की जितनी भी समस्याएं हैं उन्हें मात्र भोजन में परिवर्तन करके दूर की जा सकती है । मनुष्य न जाने कहां-कहां इन समस्याओं का समाधान ढूंढता फिर रहा है। परंतु सही मायने में संसार की सारी समस्याओं का समाधान उसकी थाली में छुपा हुआ है।

भाग- १७

संगम तट पर टहलने का आनंद इतना अलौकिक है कि जिससे धरती पर स्वर्ग की तुलना की जा सकती है। मां गंगा यमुना और सरस्वती का मिलन स्थल पर आने के पश्चात ऐसा लगता है कि जैसे संसार के सारे लोगों के विचार भाव मिलकर एक हो गए हो।

प्रति रविवार को विशेष रूप से संगम के घाट पर जाने का प्लान होता। जो लोग हनुमान जी के भक्त हैं वह मंगलवार की सायं भी जाते हैं। मंगलवार को तो लेटे हनुमान जी के दर्शन करने वालों की जैसे सारा शहर उमर पड़ा हो।

कहते है कि सम्राट अकबर किला बनवाना चाहता था ।हनुमान जी की मूर्ति बीच में बाधा उत्पन्न कर रही थी। वह उसे उखाड़ कर फेंकवाना चाहता था। परत मूर्ति जमीन के अंदर धसती जा रही थी ।अंत में निराश होकर उसे अपने इरादे को बदलना पड़ा।

हनुमान जी महाराज की शक्ति और सामर्थ्य को यहां सहज में देखा जा सकता है। किले की दीवार मंदिर के बगल से निकालना पड़ा । मूर्तियों के प्रति द्वेष भाव रखने वाले को सोचना चाहिए कि मानो तो देव नहीं तो पत्थर।

एक घटना है । एक बार विवेकानंद जी किसी राजा के यहां राज्य अतिथि थे। वहीं पर राजा ने मूर्तियों की बुराई करना शुरू कर दिया। स्वामी जी सुनते रहे फिर उन्होंने सामने टंगे राजा की मूर्ति उतरवा कर उस पर थूकने के लिए कर्मचारियों को कहे लेकिन कोई भी कर्मचारी तैयार नहीं हुआ।

फिर स्वामी जी ने कहा कि यह मूर्ति भी तो कागज की बनी हुई है लेकिन तुम लोग इस पर थूक नहीं सके क्योंकि तुम मानते हो कि इससे राजा का अपमान होगा। इसी प्रकार सभी हिंदू भी मूर्तियों में भगवान के दिव्य स्वरूप का दर्शन करता है । उसे वह पत्थर नहीं समझता।

स्वामी जी की बात सुनकर सभी मूर्तियों के श्रेष्ठता पर मुग्ध हो गए। आगे से राजा या उसके कर्मचारियों ने कभी मूर्तियों का अपमान नहीं किया।

मैं जब सातवीं आठवीं कक्षा में पढ़ता था तभी से हनुमान जी महाराज की भक्ति करता था ।मेरी मां भी हनुमान भक्त थी। उनकी देखा देखी मुझ में भी सहज में भक्ति जागृत हो गए। लेकिन पता नहीं क्यों ऐसा लगता था कि यह सत्य नहीं है । सत्य स्वरूप तो कोई और है।

मैं लोगों से अनेक तर्क वितर्क करता। कभी-कभी लोग झल्ला जाते कि तुम ऐसे प्रश्न मत पूछा करो । अभी पढ़ने लिखने की उम्र है। पढ़ो लिखो बेकार की बातों में सिर खपाने से कोई फायदा नहीं निकलने वाला है।

मैं घंटों संगम तट पर जाकर चिंतन मनन करता की जीवन का सत्य क्या है ? यहां तो कोई पूछने वाला भी नहीं था कि जो पूछे कि मैं कहां जाता हूं ? पार्टनर जब गांव जाता तो मैं दिन-दिन भर सुबह यदि कमरे में भोजन करके निकला तो सायंकाल ही लौटता था।

मेरी भूख प्यास जैसे खत्म सी हो गई। मुंह का स्वाद बिगड़ने लगा । भइया ने जब सुना तो घर बुलाकर डॉक्टर से इलाज भी करवाया । परंतु जब कोई शारीरिक बीमारी हो तब ठीक हो ना। मुंह का कौर बाहर निकल आता था। जो भी खाता उल्टी कर देता।

ऐसे में मेरी हालत दिनों दिन बिगड़ती जा रही थी। परंतु एक दिन ऐसा लगा कि कोई दिव्य मूर्ति प्रकट होकर कह रहे हैं कि-” बेटा! यह सारा संसार मेरा ही प्रतिरूप है। तुम हर कमजोर ,बेसहारा का सहारा बनो सभी में मेरा ही प्रतिबिंब देखो।’

उस दिन से मेरे जीवन की धारा ही जैसे बदल गई । मुझे अपाहिज, कोढ़ी रोगी आदि से कोई घृणा नहीं होती । पास में ही पुल के नीचे कुष्ठ आश्रम था।

कुछ समय बचाकर मैं उनके बच्चों को पढ़ाने जाता। पास में मंगते हैं उनके बच्चे भी रहते थे। वह भी आ जाते।
पास में ही गंदा नाला था।

उसमें से ऐसी बदबू आती थी कि 1 मिनट भी रूकना मुश्किल होता। यह लोग पुल के नीचे की जगह पर मिट्टी में मकान बनाकर रहते थे । मुझे जिंदगी में पहली बार ऐसा लगा कि क्या ऐसी भी जिंदगी लोग गुर्जर करते हैं ?उनके दुःख को देखकर लगा कि मेरा तो दुख जैसे उनके सामने कुछ नहीं है। वे लोग मांस को आग में पका कर खाते थे। उनके बच्चों में भी वैसे संस्कार आ गया था।

शिक्षा क्या होती है उनको जैसे पता ही नहीं हो। सुबह उठकर बच्चे या तो भीख मांगने निकल जाते या कूड़ा कटकर बिनते । लेकिन कई बच्चे बहुत अच्छे संस्कारी थे। जैसी संगत में पड़ जा गए हैं उसी में ढलने के अलावा कोई उनके सामने मार्ग भी तो नहीं था।

मैं उन लोगों के पास तीन माह तक पढ़ाने गया । उनके बच्चों से कभी एक पैसा फीस नहीं ली। बल्कि किताबें कापी स्वयं से खरीद कर देता। मुझे इससे जो खुशी मिलती थी कि उसे शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता।

कहते हैं कि जो व्यक्ति स्वयं अभाव दुखों में रहता है वही दूसरों की परेशानी को समझ सकता है । पता नहीं गरीबों की सेवा में मुझे इतना आनंद आता है कि पूछो मत। मैं जहां भी रहता कोई न कोई सेवा का मौका जरूर ढूंढ लेता।

भाग – १८

मैं दो सगे भाइयों से ट्यूशन पढ़ता था । एक से रसायन तो दूसरे से भौतिक एवं गणित। रसायन पढ़ाने वाले सर बहुत हैंडसम थे । वे आशिक मिजाजी भी थे ।‌ वह अभी बीएससी सेकंड वर्ष में ही थे लेकिन उनके समझाने का ढंग बहुत निराला था । परंतु दूसरे वाले सर के साथ बहुत नीरस लगते थे । उन्हें ज्ञान तो बहुत था लेकिन पढ़ाने का ढंग अच्छा नहीं था।
ज्ञान होने के बाद भी उसे बच्चों को कैसे पढ़ाना है इसको भी आना चाहिए।
पहले वर्ष में उत्साह भी बहुत होता है । ऊर्जा नई नई रहती है। मेरी तैयारी तो अच्छी नहीं थी। फिर भी पॉलिटेक्निक एवं एम एल एन आर आदि की परीक्षाओं में बैठा परंतु सफलता किसी में नहीं मिल सकीं।

मैं एक बार निराशा के गहरे शोक में डूब गया । लेकिन भइया ने समझाया कोई बात नहीं । पुनः मेहनत करो जरूर सफल होंगे । धीरे-धीरे मैं और उत्साह से पढ़ने लगा।

इस बार विचार था कि किसी अच्छी कोचिंग क्लास को ज्वाइन किया जाए परंतु बड़ी कोचिंग क्लासों की फीस उस समय भी 5 से 7000 सालाना थे। मैं जानता था कि घर में भैया के पास पैसे नहीं हैं। मैं घर की स्थिति देखकर उनसे कह दिया की कोचिंग नहीं करूंगा सेल्फ स्टडी करूंगा। भैया ने कहा लेकिन रहने खाने कमरे के पैसे तो फिर भी देने ही पड़ेंगे । समय भी ऊपर से जाएगा।

लेकिन किया क्या जा सकता है या तो खेत गिरवी रखा जाए तभी इतना पैसा मिल सकता है। लेकिन खेत को रखने से खाने-पीने की भी घर में दिक्कत होने लगती है।

मां ने कहा एक बार मझली बहन से बात करके देखो हो सकता है वह कुछ करें परंतु मां और भैया दोनों दीदी से पैसा नहीं लेना चाहते थे। लेकिन मजबूरी में आदमी को कभी-कभी वह करने पर मजबूर होना पड़ता जिसे वह करना नहीं चाहता।
हमारे यहां बेटी के यहां से कुछ लेना अच्छा नहीं माना जाता है।

कुछ लोग तो बेटी के घर का पानी भी नहीं पीते। कितना दिव्य भाव था हमारे पूर्वजों का। इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। हमारे पड़ोस की ही भाभी के जी के पिताजी जब आते थे तो बिना पानी पिए जो कुछ सामान देना होता था देकर चले जाते परंतु बेटी के घर का पानी नहीं पीते थे।

भैया ने और कोई चारा न देखकर दीदी से इसकी चर्चा की परंतु पैसे के लिए जीजा जी से पूछना जरूरी था । हजार 500 की बात होती तो सहज में दे देती 5000 की बात थी।

जीजा जी मना भी कर सकते थे । उस समय वह मुंबई में थे । ऐसे में दीदी ने पैसा बिना पूछे ही देना उचित समझा । क्योंकि एडमिशन की तारीख भी खत्म हो रही थी। दीदी का मैं शुक्रगुजार हूं कि मैंने जो भी शिक्षा प्राप्त कर सका उनमें उनका भी एक बड़ा सहयोग रहा।

मैं वंदना कोचिंग में प्रवेश लेकर पढ़ने लगा । जिसे इवनिंग क्रिश्चियन कॉलेज के प्रोफेसर लोग मिलकर पढ़ाते थे । सभी शिक्षकों के पढ़ाने का तरीका बहुत ही अच्छा था।

रसायन के सर इतनी तेजी से बोलते या लिखते थे कि मैं पीछे रह जाता था । कोचिंग में भीड़ भी बहुत ज्यादा थी । जितनी सीट थी उससे अधिक बच्चों ने प्रवेश ले लिया था । ऐसे में बहुत से बच्चों को खड़े होने की भी जगह नहीं थी।
कोचिंग का व्यवसाय इस समय पूरे सवाब पर है।

जो अच्छे संस्थान है कई करोड़पति बन चुके हैं । उनका एकमात्र उद्देश्य पैसा बनाना होता है। बच्चों की शिक्षा सुविधा से कोई सरोकार नहीं रहता उनके।

आखिर हर मां बाप की इच्छा होती है कि उसका बेटा इंजीनियर या डॉक्टर बने । यह दो धाराएं पहले नंबर पर है । यदि कोई बच्चा गणित विषय लेकर इंटर पास किया है तो जरूर वह इंजीनियरिंग ही बनना चाहेगा इसी प्रकार जीव विज्ञान पढ़ने वाला डॉक्टर।

वाणिज्य कला विषय इसके बाद ही आते हैं। माता-पिता कभी इस बात की परवाह नहीं करते की उनका बच्चा डॉक्टर या इंजीनियर बनने लायक है या नहीं। बस अपनी इच्छाएं लादने की कोशिश करते हैं । ऐसे में जो प्रबद्ध वर्ग देश के कार्यों में लगनी चाहिए थी वह बाद में निराशा एवं कुंठा भरा जीवन जीने के अलावा उसके सामने कोई दूसरा मार्ग नहीं बचता।

दूसरी मैंने एक समस्या है कि जो इंजीनियर है डॉक्टर बनने के बाद आई ए एस, पीसीएस होते हैं वह भी 10 लाख रुपए खर्च करने के साथ समय और श्रम को व्यर्थ में गंवा देते हैं । साथ ही उनको यदि डॉक्टर इंजीनियर नहीं बनना था तो पहले निर्णय करना चाहिए था।

उनकी जगह कम से कम दूसरे की जगह तो पढ़ने को मिलता है। कोचिंग संस्थानों के करने से लाभ भी होते हैं । बच्चों को मार्गदर्शन अच्छा मिल जाता है। नोटिस भी सटीक होते हैं जो अधिकांश परीक्षाओं से मेल खाते हैं।

मुझे कोचिंग करने का लाभ भी मिला । इस वर्ष मैंने जो भी परीक्षाएं दी थी जैसे पालीटेक्निक एम एल एन आर आर । सिलेक्शन भी हुआ। एम एल एन आर में भी रैंक कुछ कम थी इसलिए प्रवेश उसमें नहीं मिल सका।

मैंने सोचा पॉलिटेक्निक में प्रवेश ले लिया जाए। मेरा प्रवेश हाथरस के पास नया जिला बना महामाया नगर में हुआ पंरतु इस बीच एक घटना घट गई। मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीए भी कर रहा था । 2 वर्ष पूर्ण हो चुके थे । मैं फिर एफीडेविड लगा दिया था । साक्षात्कार के समय जब मुझसे पूछा गया तो एक बार मैं झूठ बोल दिया परंतु झूठ पकड़ में आ गए।

बाद में बीए करने की बात स्वीकार करनी पड़ी । मैं 2 वर्ष को बर्बाद नहीं करना चाहता था इसलिए प्रवेश नहीं ले सका। मेरी इस प्रकार से दो नावों की सवारी करना मेरे लिए ही घातक सिद्ध हुई।

भाग- १९

कहां जाता है की मनुष्य जीवन में सफलता के मौके बार-बार नहीं आता यदि एक बार मौका हाथ से चुक जाए फिर तो कितनी भी प्रयास को करें मिलने वाली नहीं। मुझसे एक बार प्रवेश लेने का मौका छूट गया। सोचा अगले वर्ष और अच्छा प्रयास करूंगा तो अच्छा ट्रेड और विद्यालय भी अच्छा मिल जाएगा।

परंतु मनुष्य का सोचा यदि ऐसे होने लगे तो फिर बात ही क्या? अगले वर्ष मेरा प्रवेश किसी में भी नहीं हुआ । नहीं होना था नहीं हुआ। इसी बीच बीए कंप्लीट करने के पश्चात एम ए हिंदी साहित्य में छत्रपति शाहूजी महाराज विश्वविद्यालय कानपुर से किया।

एम ए करने के पश्चात लोगों ने सलाह दिया कि आईएएस पीसीएस की तैयारी करो । फिर उसकी करने लगा । एक तो मैं इतिहास कभी पढ़ा नहीं था परंतु इतिहास विषय में इतनी तिथियां याद करनी थी कि पूछो ही मत।दो-तीन वर्षों तक इसमें भी तैयारी करने के पश्चात छोड़ दिया।

फिर सलाह लेकर डीएम एलटी लैब टेक्नीशियन का डिप्लोमा कर लिया जाए। यदि कहीं पैथालॉजी लैब खोल लेते हैं तो रोटी पानी का जुगाड़ हो ही जाएगा।

मेरे ननिहाल के सुरेंद्र भैया का दिल्ली में कॉपरेटिव बैंक है। सुरेंद्र भैया ने कहा कि यदि मैं कॉमर्स में कुछ किया होता तो नौकरी लगवा देता । अब मां पीछे पड़ गई कि यदि मैं कामर्स से कोई कोर्स कर लूं तो समझो नौकरी पक्की । अब फिर क्या था राजर्षि टंडन मुक्त विश्वविद्यालय से पीजीडीएफएम में प्रवेश भी ले लिया।

क्या कोर्स में लिखा है मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया ।अंत में जो होना था वही हुआ। यहां भी असफलता हाथ लगी। सारा पैसा यहां भी डूब गया।

अब मुझे डॉक्टरी का चस्का लगा। मेरे पास के डॉक्टर नरेंद्र कुमार की होम्योपैथिक की क्लीनिक थी । मैं उसे सीखने लगा। इसी बीच एक दुकान पर डॉक्टर दरबारी की बायोकेमिक पर लिखी पुस्तक मिली जो उनके अनुभव पर आधारित है
फिर क्या था दवाओं को जैसा डॉक्टर दरबारी ने लिखा था वही समिश्रित मिलाकर लोगों को देने लगा।

लोगों को आराम भी मिलने लगा । फिर बात ही क्या थी । बन गया मैं डॉक्टर । थोड़ा अनुभव लेने के साथ ही मैं एलोपैथ की दवाएं देने लगा । मेरी दवाखाना चल निकली । 100 ₹200 बड़े आराम से कम लेता था ।

उसका कारण है हमारे गांव में मुस्लिम बस्ती ज्यादा है जहां पुरुष सभी मुंबई है उन शहरों में काम करते हैं महिलाएं घर में बीड़ी बनातीं है। वह पैसे देने में आनाकानी नहीं करतीं थीं। फिर मैं अपने गांव का डाक्टर बन गया ।

भाग- २०

मेरे गांव में लोग मुझे बहुत मान सम्मान करते थे क्योंकि उनकी नजरों में मैं एक अच्छा लड़का गिना जाता था। बचपन में मां कभी किसी के यहां आने जाने नहीं देती थी। उन्हें लगता था मैं कहीं बिगड़ ना जाऊं।

गांव में अभी भी चरित्र को प्रमुखता दी जाती है। दुनिया में आज किसी पर प्रतिबंध है तो प्रेम पर। गांव वाले यदि इस प्रकार की कोई घटना होती थी उसकी पूरी पंचायत बुलाते हैं । गांव के अधिकांश झगड़ा गांव के चौधरी सुलझा दिया करते थे।

प्रेमी युगल को मरने मारने की घटनाएं अक्सर हम सुनते रहते हैं। यदि हम ध्यान से पढ़े तो पेपर की अधिकांश खबरें प्रेम पर आधारित मिलेगी । भारतीय फिल्मों का मुख्य आधार देखा जाए तो प्रेम ही है।

यदि मनुष्य को सहज स्वाभाविक रूप से जीने दिया जाता रहता तो समाज में इतनी अराजकता नहीं फैलती। प्रेम पर लगाए प्रतिबंध का ही नतीजा है की नित्य प्रति ऐसी घटनाएं होती रहती है। मैंने कभी अपने गांव में ऐसी घटनाएं को होते नहीं सुना।

मेरी यह समझ में नहीं आता है कि लोगों को व्यक्ति की बुराई ही क्यों दिखती है । समाज में अच्छे काम भी तो होते हैं । परंतु उसकी चर्चा कोई नहीं करता। समाज में यदि अच्छी बातों को प्रोत्साहन दिया जाए तो वहीं से अच्छे लोग आगे आ सकते हैं।

मेरे गांव के मोड पर कुछ चाय पान की दुकानें हैं। जहां 10-5 लोग नियमित बैठे हुए आपको मिल जाएंगे । जो केवल बेकार की बातें करते हुए अपने दिन काट देते हैं। या तो ताश के पत्ते खेलते रहते हैं। मेरे गांव में लोग शराब भी खूब पीते हैं । मैंने कई परिवारों को शराब पीने से बर्बाद होते अपनी आंखों से देखा।

पीने के बाद व्यक्ति परिवार में लड़ाई झगड़ा शुरू कर देते थे। मेरे पड़ोस के भैया अपनी पत्नी को शराब पीने के बाद इतना मारते थे जितना लोग जानवरों को भी नहीं मारते होंगें । अधिकांश में वे ऐसा नशे की हालत में करते थे। जिसमें व्यक्ति अपने होशो हवास खो बैठता है।

हमने देखा है कि लोग शराब के नशे में करोड़ों की संपत्ति गवा देते हैं। भगवान बुद्ध शराब को सभी बुराइयों की जड़ माना है। सभी संतो ने शराब से बचने के लिए कहा है।

शराब पीने वाला व्यक्ति स्वयं तो बर्बाद होता है। साथ ही पड़ोसी और पूरे समाज को बर्बाद कर देता है। मेरे साथ के पढ़ने वाले गांव के दोस्त का शरीर नशे के कारण खराब हो चुका है। गांव में छोटे-छोटे बच्चे भी शराब पीने लगे हैं।

गांव में जो लड़के बचपन से ही बाहर के लोगों से ज्यादा संपर्क में रहे , काम की तलाश में गए उन्हें कुछ मिला हो या ना मिला हो परंतु शराबी अवश्य बना दिया है।

मैं गांव के बहुत से बच्चों को शराब छुड़ाने का प्रयास किया लेकिन सफल नहीं हो पाया। इसका कारण यह भी रहा की सामने से वे संकल्प ले लेते थे, लेकिन जब पूरा गांव ही शराब में डूबा हो तो फिर वे उसी में डूब जाते थे।

 

शेष अगले अंक में

 

योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )

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