
हाॅं हम है ये आदिवासी
( Han hum hai adivasi )
हाॅं हम है ये आदिवासी,
खा लेते है रोटी ठंडी-बासी।
रखतें हाथों में तीर-कमान लाठी,
क्यों कि हम है इन वनों के ही वासी।।
हाॅं हम है ये आदिवासी,
बोड़ो भील कहते है सांसी।
मर जाते, मार देते जो करें घाती,
जंगल, ज़मीं हेतु चढ़ जातें है फांसी।।
हाॅं हम है ये आदिवासी,
बन गये कई वो ग्रामवासी।
फिर भी नही यह नोटों की राशि,
पहले कभी थें सभी जंगल के वासी।।
हाॅं हम है ये आदिवासी,
रहते थें सब जो हंसी-खुशी।
कम हो गए हमारे साथी ये हाथी,
क्यों कि बस गए यहां ये नगर-वासी।।
हाॅं हम है ये आदिवासी,
जहां नहीं थी कोई ये जाति।
जंगल में रहते थें बनकर प्रवासी,
कुदरत के पुजारी ना थी कोई दासी।।
रचनाकार : गणपत लाल उदय
अजमेर ( राजस्थान )