बरखा | Barakha par Kavita
बरखा
( Barakha )
छम-छम करती आ पहुंची, फुहार बरखा की।
कितनी प्यारी लगती है, झंकार बरखा की।।
हल्की-फुल्की धूप के मंजर थे यहां कल तलक।
टपा-टप पङी बूंदे बेशुमार बरखा की।।
पानी का गहना पहने है , खेत, पर्वत, रास्ते।
करके श्रृंगार छाई है , बहार बरखा की।।
झींगुर, मोर, पपीहा, कोयल, पेङ, पौधे,बच्चे।
दिल में चाहत रखता है, संसार बरखा की।।
तपते बदन पर आन पङे जब ठण्डी-ठण्डी बूंदे।
काम-बाण सी लागे तिरछी धार बरखा की।।
तन-मन दोनों भीग गए झलक पाकर इसकी।
जब देखा बढती जा रही रफ्तार बरखा की।।
बे-हिसाब मत ना बरसो, अर्ज करे “कुमार”।
कोई प्यासा कोई सह रहा है मार बरखा की।।
लेखक: Ⓜ मुनीश कुमार “कुमार”
(हिंदी लैक्चरर )
GSS School ढाठरथ
जींद (हरियाणा)
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