बेख़बर हूं | Bekhabar Hoon
बेख़बर हूं
( Bekhabar Hoon )
जलता है खैरलांजी,
जलता है मेरा मन
गोहाना की राख
सुलगती है अब भी
मेरे लहू में,
गोधरा की ट्रेन से
झांकती वे मासूम आंखें
करती हैं मेरा पीछा,
बदायूं के बगीचे में
शान से खड़े पे़ड़ पर
टंगी दो लाशें
दुपट्ट्टे पर
खून के धब्बे,
धब्बों में
छुपे हैं हत्यारों के निशान,
जिसे, खोजते हो तुम कई दिनों,
महीनों, वर्षों से
लग जाएंगी सदियां भी,
तुमको ढूंढने में
उन्हें,
जो छोड़ते तो हैं बहुत कुछ
सबूतों के तौर पर,
मग़र……. तुम्हारे ज़हन में
वे छोड़ जाते हैं
सर्वश्रेष्ठ होने का दम।
यह यात्रा न जाने
होगी कब खत्म…
आज मेरे सामने है
फिर
दादरी, फरीदाबाद….
तुम्हारे हाथों में है
और भी लम्बी सूची
न जाने कब
तुम शीघ्र ही
फिर भरोगे दम्भ अपनी जाति का,
जलेगें
और कितने शहर…गांव….बस्तियां….मक़ान
जिससे बेख़बर हूं मैं
डॉ. प्रियंका सोनकर
असिस्टेंट प्रोफेसर
काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी।
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