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दारु इतनी मत पीना | Daru par Kavita

दारु इतनी मत पीना

( Daru itni mat pina )

 

दारू इतनी मत पीना कि वह तुम्हें पीने लग जाएं,
बिन आग व श्मशान के तुम्हारा शरीर जल जाएं।
सुधर जाना संभल जाना सभी पीने वाले वक्त पर,
शत्रुओं से भी बुरी है ये इससे दूरियां बनाते जाएं।।

गिरते-पड़ते आते है इस तरह के लोग आधी-रात,
नही खा पाते रोटी वक़्त पर न खा पाते वो भात।
इर्द-गिर्द घूमते-रहते ऐसे लोग ठेकों पर ये शराबी,
न सुनते घर में किसी की अनदेखी कर देते बात।।

जिस-जिसने भी किया है इससे अत्यधिक दोस्ती,
दूरी बनातें उसी से परिवार वाले और यही बस्ती।
ऐसे नशेड़ी संपूर्ण घर का सुख-चैन ही पी जाते है,
जिस पर यह सारी दुनियां ज़िन्दग़ी भर है हंसती।।

आज बोतलें बेचने वालें बड़े-बड़े बंगले बना लिए,
बोतल खरीदने वाले पत्नी के जेवर भी बेच दिए।
ऐसी बुरी आदत है साथियों इससे सभी रहना दूर,
ज़हर ना घोलो कोई जीवन में ख़ुशी से इसे जिएं।।

देखें है हमनें भी इसके यहां पर कई सारे शोकिन,
चरित्र पर न कोई दाग़ लगाओ देखें भावना-हीन।
गलती कैसी भी हो जिसको सुधार सकता है वीर,
नशे के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएं अमीर चाहें दीन।।

 

रचनाकार : गणपत लाल उदय
अजमेर ( राजस्थान )

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