जगमग जगमग दीप जले है

दीप जलते ही | Deep Jalate Hi

दीप जलते ही

( Deep Jalate Hi )

छुप के बैठी थी कहीं शातिर हवा।
दीप जलते ही, हुई हाज़िर हवा।

तर्के-मय वाले परेशानी में हैं,
बू-ए-मय अब मत उड़ा काफ़िर हवा।

यक-ब-यक गुमसुम नदी क्यों हँस पड़ी,
मौज से क्या कह गई आख़िर, हवा।

क्या ठिकाना कब, कहाँ को चल पड़े,
रुख़ बदलने में तो है माहिर हवा।

छुप के रह सकती नहीं कोई महक,
पल में कर देती है, जग-ज़ाहिर हवा।

मैक़दे तक आख़िरश आ ही गई,
घूम फिर कर मस्जिदो-मंदिर, हवा।

ऐ ‘अकेला’ रात यूँ ही कट गई,
अपना दुख करती रही ज़ाहिर हवा।

कवि व शायर: वीरेन्द्र खरे ‘अकेला

छतरपुर ( मध्य प्रदेश )

तर्के-मय=शराब का परित्याग
बू-ए-मय=शराब की गन्ध
यक-ब-यक=अचानक, एकाएक

यह भी पढ़ें:-

Similar Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *