Namumkin hai
Namumkin hai

नामुमकिन है

( Namumkin hai ) 

 

काजल की कालिख हर ले काजल, नामुमकिन है।

नफ़रत का नफ़रत से निकले हल, नामुमकिन है।

हम जैसा बोएँगे, वैसा ही तो काटेंगे,

दुष्कर्मों का निकले शुभ प्रतिफल, नामुमकिन है।

दुख-दर्दों, संघर्षों के कटु अनुभव भी देगा,

जीवन सुख उपजाएगा अविरल, नामुमकिन है।

उनके आश्वासन का मित्रो कोई अर्थ नहीं,

उपवन को आश्रय देगा मरुथल, नामुमकिन है।

जाग्रत रहना ऊबड़-खाबड़ पथ भी आएगा,

रस्ता दूर तलक होगा समतल, नामुमकिन है।

वृत्ति सुनिश्चित अल्पज्ञों में ढोंग-दिखावों की,

बिन छलके जाए ‘गगरी अधजल’, नामुमकिन है।

सपना अपना भी होगा साकार ‘अकेला’ जी,

हो जाए हर यत्न सखे, निष्फल, नामुमकिन है।

 

कवि व शायर: वीरेन्द्र खरे ‘अकेला

छतरपुर ( मध्य प्रदेश )

 

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