दीवार खड़ी हो गयी | Ghazal
दीवार खड़ी हो गयी
( Deewar khadi ho gayi )
उतरेगा वो फलक से सबकी नज़र रही।
उम्मीद वस्ल-ए-खास की अक्सर जब़र रही।
कहने को तुम सही थे हम भी कहां गलत,
दीवार खड़ी हो गयी गलती मगर रही।।
शीशे ने टूटने की जिद ठान ली आखिर,
उस पर वफा हमारी तो बेअसर रही।।
खिलने तक कितने कांटे सहे हैं गुलाब ने,
फिर भी कहा लोगों ने कुछ तो कसर रही।।
कुछ जख्म ‘शेष’ अब तो नासूर बन गये,
मरहम लगाओ आकर दिल पर गुजर रही।।
कुरबत पे दिया जलाने आता है आजकल,
जिसको कभी न फुर्सत शामों सहर रही।।