दुख की घङियां सुखों में यूं ढल जाती है
दुख की घङियां सुखों में यूं ढल जाती है
दुख की घङियां सुखों में यूं ढल जाती है।
जैसे फूलों में कलियां बदल जाती है ।।
आँधियों में अग़र वो खुदा चाहे तो।
फिर से बुझती हुई लौ भी जल जाती है।।
हैं नादां चाहे जो शोहरत को वो ।
फूल की बू हवाओं में घुल जाती है ।।
कौशिशें भी करे चाहे कितनी कोई।
जिस्म से जान फिर भी निकल जाती है।।
जो न तकदीर में हो वो हर शय “कुमार”।
हाथ में आके भी फिर फिसल जाती है।।
?