एक पत्र किताबों के नाम | Ek Patra Kitabon ke Naam

सुनो सखी,
तुम्हें पता है ,किताबें महज अब एक रद्दी बनकर रह गई,एक वक्त था जब लगाव था किताबो से सबको,लेकिन आज मोबाइल ने इसकी अहमियत ही खत्म कर दी,जो शब्द किताबों में लिखे होते थे,उनमें खुद से जुड़ी भावनाएं अपनेपन का एहसास कराती थी,आज मोबाईल में सोशल साइट्स में कब वक्त बीत जाता पता ही नहीं चलता।

पहले स्कूल बैग में ढेरों किताबों का खजाना हुआ करता था, और उन किताबों से अलग ही लगाव हुआ करता था, पर अब स्कूल बैग में किताबें तो दूर रहा पढाई भी नई तकनीक से होने लगी, होमवर्क व्हाट्सएप पर आता और क्लासेज जूम मीटिंग में।कुछ बच्चें तो किताबें देखकर ही हंसने लगते कि यार ये भार कौन संभाले चल फोन में E-book डाउन लोड करते है।

पहले एक वक्त हुआ करता था जब दादी नानी कहानियां कहती किताबों वाली परियों की और कब आंख लग जाती पता भी नहीं चलता था,पर आज बच्चे रील्स बनाने में इतने मशगूल कि जब तक फोन की बैटरी ना जाए उन्हें पता ही नहीं चलता दिन और रात का।

कितनी अजीब बात है ना हम लेखक भी अपनी लेखनी प्रकाशित कराते लेकिन वो किताबों में कितनी बार पढ़ते या खरीदते। महज एक दो बार पढ़ा फिर रख दिया एक कोने में, या सोचते यार क्या करना लेकर फिर रखे कहां कौन संभाले। मोबाइल में है ना E-book पढ़ लेंगे उसी से।

किताबों से दोस्ती क्या होती, उनसे जुड़े एहसास क्या होते,उनकी अहमियत क्या होती ये सब भूलते जा रहे क्यूंकि हम आज भी देशी से ज्यादा विदेशी चीजों के गुलाम है। किताबें बरसो पुरानी एक बक्से में रखी आज आधुनिकता के चलते कोड़ियो के भाव बेच दी जाती, लेकिन ये नही पता होता हम वो किताबे नही किसी की जमा पूंजी बेच रहे।हमें तकनीकी की ऐसी लत लग गई कि किताबें महज रद्दी बनकर रह गई।।

 

आर.वी.टीना
बीकानेर राजस्थान से

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