निबंध – साम्प्रदायिक सद्भाव भारत की मूल पहचान | Essay in Hindi
निबंध – साम्प्रदायिक सद्भाव भारत की मूल पहचान
( Essay in Hindi : Communal Harmony Basic Identity of India )
प्रस्तावना –
किसी भी राष्ट्र के विकास के लिए सांप्रदायिक सद्भाव का होना बेहद जरूरी माना जाता है। विभिन्न संप्रदायों के आपस में लड़ने से राष्ट्र कमजोर होने लगता है।
सांप्रदायिक विदेश से सामाजिक शांति भंग होने का खतरा रहता है और राष्ट्र की आर्थिक प्रगति में यह बाधा पहुंचाता है विभिन्न संप्रदाय और राष्ट्रवाद से हमारा अभिप्राय भारतीय दृष्टिकोण के संबंध में है।
साम्प्रदायिक सद्भाव क्या है?
भारतीय संस्कृति का मूल तत्व सामान्यवादी दृष्टिकोण है। यहां पर विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के लोग आपस में मिल जुल कर रहते हैं। कभी कभार इनमें आपसे झड़ते होती हैं।
लेकिन इन से निराश होना उचित नहीं है। लेकिन हाल के वर्षों में सांप्रदायिकता का जहर बड़ी तेजी से लोगों में फैला है। असहिष्णुता को।लेकर पक्ष विपक्ष में काफी घमासान मचा जो कि भारत के विकास के लिए उचित नहीं है।
हमें संप्रदायिक भेदभाव को मिटाने की हर संभव कोशिश करने की जरूरत है। भारतीय संस्कृति में असहिष्णुता का स्थान नहीं है। लगता है संप्रदायिकता कहीं लोप हो गई है। हमें किसी भी प्रकार की साजिश का शिकार होने से बचना चाहिए।
भारत धर्मनिरपेक्ष देश है। इसमें सबको अपने अपने धर्म के अनुसार चलने और धर्म का पालन करने की पूरी स्वतंत्रता प्राप्त है।
विदेशी कूटनीतिक के चलते कभी कभार भारत में सांप्रदायिक दंगे होते हैं। भारत में मुसलमान, ईसाई, पारसी, आदि धर्म के मानने वाले लोग यहां पर हैं। इन्होंने भारत के प्रति अपनी निष्ठा का बार-बार प्रणाम प्रमाण प्रस्तुत किया है।
भारतीय राजनीति और साम्प्रदायिक सद्भाव –
वर्तमान भारतीय राजनीति में देखें तो यह समझ में आता है कि हमारे राजनेता अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए अखिल भारतीय राष्ट्रवाद के सामने एक गंभीर चुनौती उत्पन्न कर रहे हैं।
राजनीतिक हलचल की इच्छाशक्ति ने भी राजनीतिक संप्रदाय की भावनाओं को उभार कर आधुनिक राष्ट्रवाद के लिए एक समस्या उत्पन्न कर दी है।।जिसका दंड वर्तमान पीढ़ी भोग रही है। इस तरह से यह स्पष्ट है कि संप्रदायवाद रूपी राजनीतिक हथियार देश की राष्ट्रवाद की भावना को ठेस पहुंचा रहा है।
संप्रदाय अर्थात मजहब आपस में बैर करना नहीं सिखाता है। लेकिन कुछ स्वार्थी लोग जो संप्रदाय विशेष के लोगों में किसी अन्य संप्रदाय के लोगों के प्रति अविश्वास का भाव पैदा करते हैं तो यह चिंता का सबब बनता है। हमारी राष्ट्रीयता की यही मांग रही है कि ऐसे लोगों की पहचान करके उन्हें दंडित किया जाना चाहिए।
हिंदू, मुसलमान, सिख या ईसाई यह भारत सभी का है। आपसी सद्भाव से ही भारत का विकास संभव है। सभी संप्रदायों को अपनी-अपनी सांप्रदायिक संघ के नेता से ऊपर उठकर भारत के विकास में अपना अमूल्य योगदान देना चाहिए।
संप्रदायवाद की भावना राष्ट्रवाद की एकता के विकास में एक बहुत बड़ी बाधा उत्पन्न करने की क्षमता रखता है। विभिन्न संप्रदाय और राष्ट्रवाद के प्रति लोगों के संकीर्ण विचार की वजह से क्षेत्रवाद को प्रोत्साहन मिलता है।
अपने क्षेत्र विशेष के प्रति प्रेम रखना गलत नहीं है। लेकिन यहां पर दो से खेतिया राज्यों के प्रति घृणा की भावना जब उमड़ने लगती है तो यह राष्ट्रीय एकता के लिए चुनौती बन जाता है।
संप्रदाय के नाम पर आपसी संघर्ष राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधा पहुंचाता है। संप्रदायिक दंगे राष्ट्र के माथे पर कलंक की तरह होते हैं।
पूर्व के इतिहास को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्तमान समय और पीढ़ी पर सांप्रदायिकता का क्या प्रभाव पड़ रहा है। इसका सकारात्मक तथा नकारात्मक पहलू क्या है?
वर्तमान में विभिन्न संप्रदाय और राष्ट्र के प्रति हमारा दृष्टिकोण किस तरह से है, इसका राष्ट्रवाद पर असर पड़ता है।
भारत की विविधता –
हमारे देश की विविधता ही इसकी विशेषता है। किसी क्षेत्र का निर्माण भूगोल, धर्म, भाषा, रीत रिवाज, राजनीतिक, आर्थिक विकास जैसे तत्वों के आधार पर हुआ है। इसी के आधार पर अंग्रेजों के जमाने से प्रशासनिक क्षेत्र अर्थात राज्यों का गठन किया गया था।
अपने क्षेत्र से अधिक लगाव रखना व्यक्ति के लिए स्वाभाविक से बात है। लेकिन इस लगाव की भावना के कारण दूसरे क्षेत्र से अलगाव की भावना जब उत्पन्न होने लगती है तब क्षेत्रवाद की समस्या उत्पन्न होती है।
भारत की स्वतंत्रता के बाद भारत में भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन कर दिया गया। इस कदम में एक ओर भाषाएं और विकास को प्रोत्साहन मिला तो दूसरी तरफ देश प्रेम और राष्ट्रभक्ति की भावना को ठेस भी पहुंची है।
राष्ट्रीय एकता के मार्ग में इसीलिए संप्रदायिकता को सबसे बड़ी बाधा समझा जाता है। इसका उदय अंग्रेजों की नीति के कारण हुआ।
इतिहास के पन्ने उलझने पर स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि किस तरह किसी भी समाज में किसी भी समय, सामाजिक सम्प्रदाय की भावना रही है।
सामाजिक सद्भाव को एक आदर्श ही माना जा सकता है, जिसे व्यवहारिक रूप देने की जरूरत होती है। सामाजिक विषमता सर्वत्र उपस्थित रही हैं, भारत इससे अछूता नहीं है।
लेकिन आज भी भारत सामाजिक विषमताओं से जूझ रहा है। सामाजिक समता को व्यावहारिक रूप देने के लिए संवैधानिक प्रावधानों के साथ अन्य कदम उठाने की जरूरत है।
निष्कर्ष –
समाज में संपन्न वर्ग का नैतिक कर्तव्य है कि समाज के निचले तबकों को आगे लाने के लिए वह कदम बढ़ाए। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां एवं कारपोरेट कंपनियां सीएसआर के माध्यम से सहयोग दे रही हैं।
भारत बड़ा देश है और जनसंख्या अधिक होने के कारण जो भी सहयोग प्राप्त होता है उसमें से बहुत सारे लोग वंचित रह जाते हैं। ऐसे में साधन संपन्न लोगों को समाज के साथ जोड़ने की जरूरत है। जिससे ज्यादा से ज्यादा लोगों को लाभ पहुंचाया जा सके।
संपूर्ण रूप से राष्ट्रीय सांस्कृतिक विकास करने की आवश्यकता महसूस की जा रही है। राष्ट्र का एक धर्म, एक भाषा, एक राष्ट्रीयता एवं एक सर्वमान्य शिक्षा होना अनिवार्य है। भारतीय मन मस्तिष्क को विकसित करने की जरूरत है।
लेखिका : अर्चना यादव
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