गर है लिखने का शौक | Kavita
गर है लिखने का शौक
( Gar hai likhne ka shauq )
गर है लिखने का शौक तो कविता चुपचाप चली आती है।
टूटे-फूटे शब्दों में भी भावनाएं निकल जाती है।
हम तो मिश्रित भाषी हैं कभी हिंदी कभी सिंधी कभी पंजाबी कभी गुजराती निकल जाती है।
भाषा के झरोखों से दिल की ऋतु में बदल जाती हैं।
गर है लिखने का शौक तो कविता चुपचाप चली आती है।
क्या फर्क पड़ता है ऋतु कोई भी हो,
हर मौसम में भी हर मौसम की कविताएं चुपचाप चली आती हैं।
मन चंचल हो तो चंचल हवा भी कविताओं में चुपचाप चली आती है
बिन कहे शब्दों में सुगंध भर जाती है।
गर है दिल में हलचल तो तूफा से निकलकर भी शब्दों की बौछार कर जाती है।
दमकती है जब दामिनी तो कविता की हर पंक्तियां चमक जाती हैं,
गर हो लिखने का शौक तो कविता चुपचाप चली आती है।
सात सुरों की सरगम गुनगुनाती कविताओं में सिमट जाती है,
कान्हा की मुरली से राधा की पायल तक कविता बन जाती है।
गर है लिखने का शौक तो कविता चुपचाप चली आती है।
टूटे-फूटे शब्दों में भी भावनाएं निकल जाती है।
?
लेखिका :-गीता पति ( प्रिया) दिल्ली