घूंघट न होता तो कुछ भी न होता
घूंघट न होता तो कुछ भी न होता
न सृष्टि ही रचती न संचार होता।
घूंघट न होता तो कुछ भी न होता।
ये धरती गगन चांद सूरज सितारे,
घूंघट के अन्दर ही रहते हैं सारे,
कली भी न खिलती न श्रृंगार होता।। घूंघट ०
घटायें न बनती न पानी बरसता,
उर्ध्व मुखी पपिहा कब तक तरसता,
बंद सारा जग का सब ब्यापार होता।। घूंघट ०।
भरम छोड़ शेष तूने सब कुछ पढ़ा है,
किताबें हैं छोटी पर घूंघट बड़ा है,
न सभ्यता पनपती न संस्कार होता।। घूंघट ०
घूंघट के पानी से बहते समन्दर,
घूंघट के विष को क्या पायेगा विषधर,
न कर्तब्य होता न अधिकार होता।। घूंघट ०
नवग्रह न होते नखत भी न होते,
सुरालय न होते मदिरालय न होते,
घट पट न बनते न अवतार होता।। घूंघट ०
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लेखक: शेष मणि शर्मा “इलाहाबादी”
प्रा०वि०-बहेरा वि खं-महोली,
जनपद सीतापुर ( उत्तर प्रदेश।)
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