Gita Manas

आत्मानुभूति का प्रकटीकरण शेषमणिजी का “गीता मानस “

“गीता मानस ” | पुस्तक समीक्षा

( Gita Manas : Book Review ) 

 

इस सृष्टि के नियन्ता सर्व शक्तिमान परमपिता परमात्मा सत् चित आनन्द स्वरूप है। यह जीव इन्हीं परमात्मा का अंश होने के कारण ईश्वर के गुण, जीव के अन्दर दृष्टिगोचर होते हैं। यह जीव भी अपनी मूल सत् चित व आनन्द स्वरूप को ही प्राप्त करना चाहता है। किन्तु अविद्या वशात् वह शरीर के साथ तादात्म्य करके उक्त अवस्था को प्राप्त करना चाहता हैं।

जीव इस शरीर के साथ ही हमेशा रहना चाहता है। इस देह का आश्रय लेकर ही स्वयं तथा सम्पूर्ण जगत को जानना चाहता है तथा इस शरीर के साथ जुड़े संसाधनों का आश्रय लेकर नित्य सुखी रहना चाहता है जो कि सर्वथा असम्भव है।

अतः जीव को अगर सर्वज्ञता व आनन्द चाहिए तो उसे इस नश्वर देह को साधन मानकर उस साध्य अपने आत्म स्वरूप के बोध के लिए शरीर से भगवान की सेवा मन से अनवरत अखण्डाकार वृत्ति से उसका चिन्तन तथा बुद्धि से विवेक परक ज्ञान प्राप्त करके उसी अपने मूल कारण के साथ एकत्व स्थापित करना चाहिए l

यही जीव के जीवन का अन्तिम लक्ष्य है l यही परम पुरुषार्थ है। इस परम पुरुषार्थ के प्राप्ति मे ही श्री शेषमणि शर्मा जी की ” गीता मानस “ सहायक साधन के रूप में जीवों को कल्याण के मार्ग पर अग्रसारित करेगी ऐसी अपेक्षा है।

ग्रंथ के प्रत्येक श्लोक का पद्दानुवाद करते समय इस बात का ध्यान रखा गया है भाव पक्ष के साथ ग्रंथ के प्रयोजन को दृष्टिगत रखते हुए श्रीमद्भगवद्गीता जी का पद्यानुवाद “गीता मानस” जीवों के साधन में अभिवृद्धि करने वाली स्वस्वरूपानुसंधान में सहायक पुस्तक सिद्ध होगी l

मेरी श्री शेषमणि शर्मा जी को मंगल सुभेच्छा के साथ परमात्मा के श्री चरणों मे प्रार्थना है कि सदैव आपकी साधना में उत्तरोत्तर वृद्धि हो तथा “गीता मानस “जन जन के हृदय में विराजमान हो l
शुभम्!

स्वामी विज्ञानानंद सरस्वती

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“गीता मानस ” | रामचरितमानस’ के तर्ज पर प्रस्तुति अत्यंत वंदनीय

 

सर्वप्रथम श्रीमद्भागवत गीता के काव्य मय प्रस्तुति के लिए रचनाकार शेषमणि शर्मा ‘शेष ‘ को बहुत-बहुत आभार।

वस्तुतः गीता जैसे संस्कृत भाषा के ग्रंथ के अनुवाद हजारों की संख्या में उपलब्ध हैं, पर ‘ रामचरितमानस’ के तर्ज पर दोहा, चौपाई, सोरठा, छंद इत्यादि के रुप में प्रस्तुति अत्यंत वंदनीय है।

शेषमणिजी के ही शब्दों में ” बहु जन्मों के अन्त में ऐसे ज्ञानी होय। “ यह प्रभु की असीम अनुकंपा है कि भगवान ने आप को निमित्त बना कर जनभाषा हिंदी में रचना हेतु प्रेरित किया।

सबसे बड़ी बात यह है कि शब्द चयन में ऐसे सरल, सहज, स्पष्ट अर्थ वाले शब्दों को चयनित किया गया है, जिन्हें समझने के लिए शायद ही शब्द कोष देखना पड़े।

गीता अंत:करण के चतुष्ट अवयव मन, बुद्धि चित्त तथा अहंकार का निरुपण है और इसी अंतरंगता को रचनाकार ने गीता मानस में उद्घाटित किया है।

मन ही इन्द्रियों का राजा है, जिसे नियंत्रण करना है, अर्जुन रुपी साधक व्याकुल है, पर कृष्ण भगवान अभ्यास एवं वैराग्य से वश में करने का अर्जुन के माध्यम से समष्टि को प्रदान करते हैं।

” मन वैराग्य देत स्थिरता,
यहि विधि मन साधे निग्रहता ।
नित अभ्यास करे जो कोई,
अति चंचल मन वश में होई। “
(अध्याय 6,श्ल्ओक 35
‘अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते। ‘

चित्त की अविरलता का प्रकटीकरण ‘शेषमणिजी ‘ के इस ‘गीता मानस ‘ से द्रष्टव्य है-
” अहंकार मन बुद्धि,
पृथ्वी वायु अनल जल।
आठहुं भिन्नहिं सिद्धि,
ये मेरी ही प्रकृति सुन। “
(अध्याय 7)

एक बात और जो पढ़ते समय उस आनंद की अनुभूति होती है कि मन गूढ़ आनंद में समाहित हो जाता है, बिना रुके, बिना थके पूरा रचना एक ही बार में पाठ करने के बाद ही विश्राम के तरफ मन जा पाता है,
‘—- सुनत अघाहिं, रह विशेष जाना तिन्ह नाहिं। ‘
आपकी अगली रचना के प्रतीक्षा हेतु व्याकुल पाठक।
शुभमस्तु, जय हो
ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय,
हरि ओम्

अब इन्हीं के शब्दों में
‘आत्म तत्व दर्शित हुआ,गई मोह की रैन।’ (अध्याय 11)
नि: संदेह हम भक्तो का पुण्य उदय हुआ जो ‘गीता मानस ‘ के रुप में लौकिक तथा पारलौकिक लक्ष्य के सूत्र अनायास मिल गये।

पं० हीरा लाल मिश्र ‘मधुकर’

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दो शब्द

आदरणीय समस्त सनातन प्रेमी जनों सादर अभिवादन
जय श्री राधे कृष्णा ।
बड़े ही हर्ष एवं मन को आनंदित करने वाला विषय है ।

द्वापरयुग में परमब्रह्म परमात्मा श्री कृष्ण ने अर्जुन को संसार का प्रतीक मानकर धर्म और कर्म के अंतर को परिभाषित करते हुए मानव कर्तव्य की शिक्षा प्रदान की है ।

सुना था भगवद्गीता मोक्ष और वैराग्य का ग्रंथ है परन्तु अध्ययन करने के बाद भ्रान्ति दूर हो गई मैंने पाया गीता तो जीवन दर्शन है ।

मैं इसी चिंता और उधेड़बुन में लगा रहता था गीता हृदय स्पर्शी कैसे बनायी जा सकती है।
देवभाषा संस्कृत में लिपिबद्ध श्लोक आम जनमानस के लिए समझना दुश्तर कार्य था प्रभु की कृपा से श्री शेषमणि शर्मा जी संपर्क हुआ और मैंने मैंने अपने हृदय की बात उन्हें बताई ।

गीता को रामचरित मानस की तरह छंद विधा में सृजित किया जाय बोलचाल की भाषा में होने के कारण संगीत के साथ गायन भी कर सकेंगे।

आदरणीय श्री शेषमणि शर्मा जी द्वारा रचित “गीता मानस” विभिन्न छंदों में सृजित ऐसा ही काव्य है आपके नौ मास के अथक परिश्रम का परिणाम है मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है गीता मानस आम जनमानस सनातन धर्मियों के मध्य अत्यंत लोकप्रिय एवं प्रेरणा स्रोत होगा । एवं कृष्ण भक्ति रस की गंगा बहाकर पुन्य प्रदान करेगा ।
इन्हीं आशाओं के साथ

 

ओंकार सिंह चौहान

ओंकार सिंह चौहान
धवारी सतना ( मध्य प्रदेश )

 

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