जब जंगल रोए
जब जंगल रोए – कांचा गचीबोवली की पुकार
( दिकुप्रेमी की कलम से )
कुछ आवाज़ें मौन होती हैं,
जैसे टूटी टहनियों की टीस,
जैसे मिट्टी से उखड़ते पेड़ों की कराह
जिन्हें कोई सुनना नहीं चाहता।
तेलंगाना के कांचा गचीबोवली वन क्षेत्र में
विकास की आड़ में
विनाश का वाक्य लिखा गया।
जहाँ कभी हवाओं की सरसराहट
कवियों को गीत देती थी,
वहाँ अब बुलडोज़र चल रहे हैं
और चुपचाप गिर रहे हैं वे वृक्ष
जिनमें पीढ़ियों की सांसें बसी थीं।
क्या यही विकास है?
जहाँ जड़ों को उखाड़
ईंटों की नींव रखी जाए?
जहाँ जीवों को घर से बेघर कर
हम अपने भवन बनाएं?
वो वन जो कभी
प्रकृति की खुली किताब था,
आज शासन के दस्तावेज़ों में
सिर्फ़ ‘खाली ज़मीन’ बन चुका है।
छात्रों ने आवाज़ बुलंद की,
पर्यावरण प्रेमियों ने धरना दिया,
उनकी आँखों में सिर्फ़ आँसू नहीं थे—
बल्कि भविष्य का डर था।
क्योंकि अगर आज ये जंगल नहीं बचे,
तो कल सांसें भी बिक जाएंगी।
तेलंगाना उच्च न्यायालय ने
अस्थायी विराम दिया इस विध्वंस को,
पर क्या यह विराम
वन्य जीवन के ज़ख्म भर पाएगा?
प्रेम की अंतिम पुकार
पेड़ों को मत काटो,
वहाँ कविता रहती है।
उन डालों पर बैठकर
चिड़ियाँ नहीं,
बचपन गाया करता है।
इन जंगलों को मत उजाड़ो,
ये सिर्फ़ लकड़ी नहीं,
जीवन की लय हैं।

कवि : प्रेम ठक्कर “दिकुप्रेमी”
सुरत, गुजरात
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