जुगनू दुबक रहे होंगे
जुगनू दुबक रहे होंगे
ये सर्द रात है जुगनू दुबक रहे होंगे
हज़ारों दिल के दरीचे खटक रहे होंगे
मुझे यक़ीन है महफ़िल में उनके आते ही
हरिक निगाह में वो ही चमक रहे होंगे
मैं सोचता हूँ हटा दूँ हया के पर्दों को
वो मारे शर्म के शायद झिझक रहे होंगे
नज़र के तीर से जो ज़ख़्म दे दिये तूने
वो आज सोच तो कैसे फफक रहे होंगे
कभी महल जो बनाये थे हमने ख़्वाबों के
तिरे मिज़ाज से सारे दरक रहे होंगे
बुलंदी देख के जलते हैं जो भी लोग यहाँ
हमारे क़द को वो बरसों से तक रहे होंगे
ग़ज़ल को सुन के बजाईं न तालियाँ जिसने
ये शेर ज़ख़्म पे उसके नमक रहे होंगे
तवील रात का जंगल है और तन्हाई
तिरे फ़िराक़ में साग़र सिसक रहे होंगे
कवि व शायर: विनय साग़र जायसवाल बरेली
846, शाहबाद, गोंदनी चौक
बरेली 243003
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