Kahani Desh ki Mati
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अभी रमेश को 15 दिन भी नहीं आए हुए थे पता चला उसकी मां को लकवा मार गया है । वह बहुत चाहता था मां के पास पहुंचे लेकिन चाह कर भी घर नहीं जा सकता था।

रात्रि में जब वह लेटा हुआ था तो उसे नींद नहीं आ रही थी। वह सोचता रहा की किस प्रकार से है मां होगी। उसका ख्याल कैसे रखा जा रहा होगा?मां के ख्यालों में खोया हुआ कब उसे नींद आ गई पता नहीं चला।

एक-दो दिन बाद उसे जब पता चला कि अस्पताल में मां की तबीयत और बिगड़ती जा रही है। उसकी चिंता और बढ़ने लगी । वह सोचने लगा क्यों कमाने आते हैं लोग ? जब आवश्यकता पड़ने पर घर ना जा सके।

इस प्रकार से 15 दिन बीत गए । मां की तबीयत में कोई सुधार नहीं हो रहा था। खाना पीना बंद हो चुका था। मात्र इंजेक्शन के सहारे जो कुछ भी दवाई दी जा रही थी। वही उसका भोजन था।

रात रात भर वह मां के ख्यालों में डूबा रहता। विदेश की नौकरी उसके गले की फांस बन चुकी थी। वह काम पर जाता पर उसका मन नहीं लगता था। अनमने भाव से किसी प्रकार वह नौकरी को किये जा रहा था।

एक दिन उसकी मां ने कहा-” बड़कवा को देख लेती तो शांति से परमात्मा के यहां चली जाती।”
अपने बेटे की याद करते-करते अंततः मां ने अपने प्राण छोड़ दिए। उसे जब पता चला कि मां अंतिम श्वास तक उसका नाम लेती रही कि एक बार देख लेती तो संतोष हो जाता।

मां के बारे में सुनकर फूट फूट कर रोने लगा। उसका जीवन उस पिंजरे में बंद पंछी की तरह हो चुका था। जहां पर मलिक तो सुंदर-सुंदर पकवान खाने को देता है लेकिन पिजड़ा उसके लिए गले की फांस बन चुका था। वह पिंजरे से निकलकर उड़ना तो चाहता था लेकिन चाह कर भी उड़ नहीं सकता था।

वह सोचने लगा कि घर की परिस्थितियों को देखकर वह विदेश आ गया था कि घर के लोग सुखी रह सके । लेकिन क्या पता था कौड़ी कमाने के चक्कर में मां यूं ही छोड़ कर चली जाएगी।

यदि यह पता होता कि मां यू ही छोड़ कर चली जाएगी तो वह घर से नहीं आता। वहीं कुछ काम करके कम से कम मां की सेवा तो करता। आखिर अब कौन उसको बेटा कह कर बुलाएगा।

धीरे-धीरे समय अपनी गति से बीतता जा रहा था। इसी बीच अभी चार-पांच माह भी नहीं बीते थे कि पता चला उसके घर में प्यारी सी लाडली बेटी ने जन्म लिया है।

अब उसका मन और अपने देश की माटी के लिए तड़प उठा। हरपल उसकी आंखों के सामने उसकी पत्नी एवं बच्चों का चेहरा नाचता रहता था। उसकी हालत अर्धविक्षिप्त जैसी हो गई थी।

उसे कोई भी चीज अच्छी नहीं लग रही थी। बस एक ही ख्याल है । उसके मन में रहता की कैसे वह अपने घर पहुंचे। लेकिन 2 साल का अनुबंध उसे बांधे रहा है।

उसे अब दिन काटे नहीं कट रहे थे । उसे यह समझ में आ रहा था कि अपने देश में ही रहकर कमाना अच्छा रहता है । विदेश में आने पर कुछ पैसे तो मिल जाते हैं लेकिन सुख चैन सब खो जाता है।

वह याद करता है कि गांव में जब वह रह रहा था तो कोई काम धंधा नहीं मिल रहा था। पुराना घर भी टूटा हुआ था। बरसात में पानी भर जाया करता था। वह चाह कर भी घर नहीं बनवा पा रहा था।

ऐसी स्थिति में कलेजे पर पत्थर रखकर वह विदेश आने के लिए तैयार हुआ लेकिन उसे क्या पता था विदेश आने पर ऐसा पहाड़ टूट जाएगा कि जिसकी छतिपूर्ति इस जीवन में नहीं हो पाएगी।

पिछली बार जब विदेश आया था तो किसी प्रकार से मन में भाव था कि चलो कुछ कमाई करके अम्मा को कम से कम छत तो मिल जाएगी । नहीं तो अम्मा शांति से जा भी नहीं पाएगी। घर बनने के बाद अम्मा बहुत खुश दिख रही थीं। अम्मा को लग रहा था कि चलो पति की कमाई से घर नहीं बना कम से कम बेटवन की कमाई से छत तो पड़ गई।

गृह प्रवेश के समय अम्मा बहुत खुश नजर आ रही थीं। उसे क्या पता था कि अम्मा की यह खुशी-खुशी परमधाम जाने की तैयारी है। अम्मा को लग रहा था कि चलो कम से कम आपन लड़िका अपने घर में तो रहेंगे। घर में अम्मा सबसे ज्यादा खुश नजर आ रही थीं।

पैर में दिक्कत होने के कारण चलने में परेशानी हो रही थी फिर भी वह लाठी के सहारे फटाफट सारे काम करतीं जा रही थी । अम्मा को बस अब एक ही चिंता थी कि छुटका के ब्याह हो जाए। कुछ समय के अंतराल में एक लड़की मिल भी गई और छुटका के विवाह भी हो गया।

छुटका के बहू आने के बाद अम्मा को ऐसा लग रहा था कि अब सब कुछ मिल गया। उसके बाद अम्मा को इतना शांत और सुकून कभी नहीं देखा गया।

अम्मा से पूछने पर बस यही कहती कि अब सब काम पूरा हो गया। अब भगवान से यही प्रार्थना बा कि अब लें चलें बस। छोटका की शादी हुए अभी एक दो माह भी नहीं बीते थे कि अम्मा ऐसे चली जाएगी पता नहीं था।

जिंदगी की लीला बड़ी विचित्र है। मनुष्य की मजबूरियां होती हैं जिसके कारण वह अपना घर परिवार छोड़कर विदेश में कमाने जाता है।

अपने देश में ही किसी अन्य शहर पर जाने में कम से कम इतनी सुविधा रहती है कि कभी हारीं बीमारी में अचानक आप घर जा सकते हैं। लेकिन विदेशों में जाने पर आप घर नहीं लौट सकते दुनिया में इससे बड़ा और दुख क्या हो सकता है?

बेटी को हुए भी लगभग एक माह हो गए लेकिन वह घर नहीं जा सकता। मनुष्य को अधिकांश लगता है कि वह व्यक्ति विदेश गया है तो बहुत खुश होगा लेकिन उसके विदेश में रहते हुए किसी हारीं बीमारी के समय या घर में होने वाली खुशियों के समय उसको वहां जो अकेलापन अनुभव करता है उसे कौन देख पाया है।

योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )

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