Kamal Kumar Saini Poetry

कमल कुमार सैनी की कविताएं | Kamal Kumar Saini Poetry

सब एक जैसे ही है

सब एक जैसे ही है
हां
सब एक जैसे ही है
सब कहते हीं सही है
होता भी यही है
मनोविज्ञान कहता है
लगभग भावनाओं का जाल
सभी में
समान रहता है
मेरे वाला/मेरे वालीं
अलग हैं यह वहम है
सब उसी हाड़ मांस कि
बनावट है
ये जो बाहरी रंग है
ये सिर्फ सजावट है
कुछ में चमक है
कुछ में फिकापन है

सब्र अब आ भी जाए तो क्या

सब्र अब आ भी जाए तो क्या
आधी उम्र तों गुज़र ही गई है
तुम अगर आ भी जाओ तो क्या
अकेलेपन की अब आदत हो गई हैं
यूं मुकद्दर को क्यों दोष दूं मैं
कहानी अब पूरी होने को है
ये क्षणिक दृश्य हैं परदे पर
आख़िरी परदा ही गिरने को हैं
किरदार असल में
उन्नत हीं सजोये थें दिल में
कुछ छूट गया कुछ पूरा हुआ
बस “काश होता”
ये मन में ही रह गया

क्यूं

ठहर सा गया जमाना
बौनापन को साधने
दाल रोटी में
ज़िन्दगी उलझीं
पानी पास बांधने
घना कोहरा छाया है
बादलों का
मानवता के मन में
सिर्फ सोखने वाली
जिजिविषा लिए
एक दूसरे को
चूस फेंकने की होड़
रात के पहले पहर में
भूखमरी वाली दौड़

मैंने

मैंने कविता से लेकर
उपन्यास तक में
तुम्हें छाप दिया
पर अफ़सोस है
तुम्हें आज भी
यकीं नहीं है
मेरे लफ़्ज़ों में
शायरी नहीं है
ये जो भी हो
तुम्हारा गान है
शायद इस जन्म में
ना सही
हम अगले जन्म में भी
तुम्हारा इंतज़ार करेंगे

मेरे से पूछोगे कभी

मेरे से पूछोगे कभी
तुमसे प्यार क्यों हुआ
बिसरते मन को ये
एतबार क्यों हुआ
मन कह रहा है
शायद तुम सबके नहीं हो
जो सबका हुआ है
वो किसका हुआ है
इसी कारण से
मन तुम्हारा हुआ है

सहमत तों मैं

सहमत तों मैं
कई मुद्दों पर खुद से भी नहीं हूं
मगर तुम्हारी सहमति के लिए
पैमाने बदलना पड़े
तों बदल दूं
ज़िन्दगी हर बार
नहीं मांगती है
बलिदान विचारों का
कुछ भावनाओं को
अर्पित भी करना पड़ता है
जुगत हैं
कोई तों सुनें
सुननें जैसे मन से
हर बार शायरी
ताली नहीं मांगती है

मन

जब मन ही
मन का ना रहे
ऐसे मन मारकर भी
मन ना मरे
तों मन को
मना लेना हीं
बेहतर है

ना मानो

ना मानो
यह आपका स्वतंत्र मत है
हमने मान लिया है
यह हमारा मन है
सबकुछ मिलना ही
ज़िन्दगी नहीं है
थोड़ा बहुत खोकर
चलने में भी
अपना मज़ा है
मुकद्दर का पता नहीं
किस मोड़ तक जाना है
इस मोड़ तक तों
मन की खता नहीं है

हम कहां

हम कहां
चलें जा रहें हैं अंधेरे में
हाथ में लालटेन लेकर
कोई कुछ भी कह दें
कोई कुछ नहीं पूछता है
फक्त विज्ञान विज्ञान करने वालों
कहां भाग रहे हों
आपको पता है पाप हैं
फिर भी कर रहे हों
फिर गंगा में नहाने को
ट्रेनों में मर रहे हों
क्या खुद्दारी है ऐ खुदा
इनको मोक्ष चाहिए
कुछ IIT करके
बाबा बन गए
वो छोड नहीं रहें
वो भाग रहे हैं
खुद से,सच से
यही हाल हों रहा है यहां
हर एक भाग रहा है
खुद से सच से
ऐसे ही महाकुंभ में
करोड़ों की भीड़ नहीं है

साथ तों चलने लगते हैं

साथ तों चलने लगते हैं
हम एक दूसरे के
बिना सोचे, बिना समझे
लम्बी दूरी तय करने
पर,बीच रास्ते
हमें, अचानक याद आता है
यह आदमी ठीक नहीं है
यह तो लालची हैं
यह तो झूठ फरेब हिंसक है
फिर हम वापस लोटने लगते हैं
अंततः राह भटक जाते हैं
मैंने देखा हजारों हजार किस्सों में
ब्याह, व्यापार, साझेदारी, नोकरी,

मालिक, किरायेदार, रिश्ता
एक बात समान है
परख नहीं पाया
सीधा हां कर दिया
तनिक ना भी कर पाता
वापस लोटने की
नौबत नहीं आती

बेटी के जन्मदिन पर

अभी बहुत छोटी है
मगर मैं जब बैठता हूं
बच्चों के साथ
बेटा खेल में व्यस्त हो
बेटी मुझे हंसा हीं देती है
मैं बहुत चिड़चिड़ा रहता हूं
पर उसकी मुस्कान
फिर मुझे जिजिविषा
से भर देती है
मैं जब बच्चों की तरह बात करु
तों मुझे व्यस्कों की तरह
समझाने लगतीं हैं
हां बेटियों से
घर जगमगाने लगते हैं
हमारी तों बड़ी बेटी है
कभी कभी तो
अपनी मां को भी
धमकाने लगती है

हवा का रूख़ हीं बदलता है

हवा का रूख़ हीं बदलता है
वरना अनजाने में कौन यहां
किसको समझता है
आप कह रहे हैं
इश्क है
हम कह रहे हैं
रसायन बढ़ गया है
खत्म होने दो इसको
फख्त ए ज़माने में
फिर जो बचेगा इस ज़माने में
अगर फिर भी लगाव है
वहीं अलगाव हो
तों कहेंगे हम भी
यही तों इश्क है
वरना बाकी तों
बढ़े रसायन का रस्क है

बरखा सब ने दें रहीं

बरखा सब ने दें रहीं
बाट बाट कर नीर
नर पिशाच खिंच कर
मानवता में लकिर
तू बड़का मैं छुटका करके
घड़े में भी ना पीण दिया
मरघट को भी नीर
कह रैदास उपरो ही सही
भेद ना लहू,ना खीस
जे का परघट भया
धरती उपर रीछ

कमल कुमार सैनी दंभ
अलवर राजस्थान

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