जलधारा से बहे जा रहे हैं | Kavita Bahe ja Rahe Hain
जलधारा से बहे जा रहे हैं
( Jal dhara se bahe ja rahe hain )
गीत पुराने कहे जा रहे हैं, जलधारा से बहे जा रहे हैं।
भाव सिंधु काबू रखो, कब से खड़े हम सहे जा रहे हैं।
ये संसार दुखों का सिंधु, पग पग तूफां बने आ रहे हैं।
बाधा मुश्किल अड़चन आती काले मैघ घने छा रहे हैं।
शब्द सुरीले मनभावन से, झर झर मधुर कंठ गा रहे हैं।
सुरभीत बहे मधुर पुरवाई, चमन खिले पुष्प भा रहे हैं।
बहती काव्य सरिताये मधुरम, सुर गीतों में ढले जा रहे हैं।
भागमभाग मची है कैसी, बोलो कहां हम चले जा रहे हैं।
पीर पर्वत हो न जाए, क्यों बन हिमालय सहे जा रहे हैं।
नयन मोती अश्रुधार बनके, जलधारा से बहे जा रहे हैं।
रचनाकार : रमाकांत सोनी सुदर्शन
नवलगढ़ जिला झुंझुनू
( राजस्थान )