
जीवन पहेली समान
( Jeevan paheli saman )
ऐसा है हमारा यह जीवन का सफ़र,
चलते ही रहते चाहें कैसी यह डगर।
ख़ुद के घर में अतिथि बनकर जाते,
गांव शहर अथवा वह हो फिर नगर।।
गांवो की गलियां और हरे-भरे खेत,
पूछती है हमसे यह दीवारें और रेत।
कौन हो भाई और कहा से हो आए,
विधाता ने हमारा ऐसा लिखा-लेख।।
सारी ज़िंदगी अनजाने बनकर रहते,
अडौसी- पड़ौसी भी हमें भूल जाते।
किताबों तक ही रह जाती यह बातें,
अनजान राहें और अनजान ये रातें।।
बन गया है जीवन पहेली के समान,
फ़ौज की यह नौकरी हम है जवान।
आज स्वयं ही स्वयं से हम परेशान,
हम है हेरान और हर-पल अनजान।।
रचनाकार : गणपत लाल उदय
अजमेर ( राजस्थान )
यह भी पढ़ें :-