मन की पीड़ा | Kavita Man ki Peeda
मन की पीड़ा
( Man ki Peeda )
मन की पीड़ा मन हि जाने
और न कोई समझ सका है
भीतर ही भीतर दम घुटता है
कहने को तो हर कोई सगा है
अपने हि बने हैं विषधारी सारे
लहू गरल संग घूम रहा है
कच्ची मिट्टी के हुए हैं रिश्ते सारे
मतलब की धुन में सब झूम रहा है
दया, धर्म सब हिये किताबी
साथ सफर का छूट रहा है
रिश्ते नाते हैं कहने की बातें
दिल से दिल का नाता टूट रहा है
छत के नीचे भी तन्हाई है
इक दूजे मे रुस्वाई है
पिता पुत्र भाई बहन तक मे भी
होती रोज लडाई है
मानवता की बात करें क्या हम
मानव हि मानव रहा नहीं
श्वान को हड्डी दिखती जैसे
प्रेम सुधा रस रहा नहीं
( मुंबई )
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