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राष्ट्रधर्म | Kavita Rashtradharm

राष्ट्रधर्म

( Rashtradharm )

देश काल सापेक्ष संस्कृति
का जिसमें विस्तार है।
राष्ट्र धर्म है श्रेष्ठ सभी से,
सब धर्मों का सार है।

प्राप्त अन्नजल जिस धरती से,
बनी प्राणमय काया,
जिसकी प्रकृति सम्पदा पाकर,
हमने सब भर पाया,
पवन प्रवाहित हो श्वांसों में,
ऊर्ज्वस्वित है करता,
अपने विविधि उपादानों से,
जीवन सुखद बनाया,

करे मातृवत पालन सबका,
सब उसका परिवार है।
राष्ट्र धर्म है श्रेष्ठ सभी से,
सब धर्मों का सार है।

प्राग्य पूर्व पुरुषों से हमको
मिली धर्म की दीक्षा,
वेद उपनिषद आचार्यों से
पाई हमने शिक्षा,
पूर्ण समाहित हुआ है जिसमें
सारा जीवन दर्शन,
प्राण विसर्जन करके आये
करते उसकी रक्षा,

वह हमको प्राणों से प्रिय यह
देख चुका संसार है।
राष्ट्र धर्म है श्रेष्ठ सभी से,
सब धर्मों का सार है।

विविधि भिन्नतायें हैं फिर भी
राष्ट्र सभी का एक है,
शतश: वंदनीय है उनको
किंचित जिन्हें विवेक है,
कितनी ही गौरव गाथाएं
वर्णित हैं इतिहास में,
रक्त बहा वीरों ने अपना
किया समुद अभिषेक है,

बलिदानों से होता आया
नव अभिनव श्रृंगार है।
राष्ट्र धर्म है श्रेष्ठ सभी से
सब धर्मों का सार है।

वह कृतघ्न कापुरुष, राष्ट्र को
जो न समर्पित मन से,
आत्मतत्व मृतप्राय है उसका,
जीवित है बस तन से,
राष्ट्रीयता पर अपनी जिसको
अभिमान नहीं है,
नष्ट भ्रष्ट हो जायेगा वह
अपने अध:पतन से,

मातृभूमि के ऋण से होता
कभी नहीं उद्धार है।
राष्ट्र धर्म है श्रेष्ठ सभी से,
सब धर्मों का सार है।

sushil bajpai

सुशील चन्द्र बाजपेयी

लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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