सांप तुम सभ्य कब हुए
सांप तुम सभ्य कब हुए
सांप
तुम सभ्य कब हुए
तुम विश्वास दिलाते हो
मेरी विष थैली में अब भरा हुआ है अमृत
दंश करना छोड़ दिया है मैंने
लोग गाते हैं जीवन-गीत
सांप
तुम पर भला कभी भरोसा किया जा सकता है
बेफिक्र जीया जा सकता है
नहीं बिल्कुल नहीं
हंसुआ टेंढ़ का ढेंढ़ ही रहता है
वही हो तुम
तब हुआ न सभ्य, तो भला क्या होगा अब
पहले तो तुम टीले पर आते-जाते लोगों पर
फन मारता था
अब गांँव शहर में घुस कर चौक-चौराहे पर अड़ कर छत्र काढ़ते हो
कुछ लोग तुम्हें कहते हैं शिव बाबा निकले हैं
लोग भूल क्यों जाते हैं शिव बाबा कभी सांप नहीं हो सकते
सांप और शिव का होना दो बात है
शिव जातिय दंश नहीं उगले देवत्व शिवाय
जो तुम उगलते हो/तुम बच्चे से ही रहते हो शायर/जो लाठियांँ बजार देते हैं और रीढ़ तोड़ कर पार देते हैं
सांप, लोगों को पता होना चाहिए
तुम्हें मुंह नहीं पूंछ पकड़ कर
नचाया जा सकता है/सभी दिशाओं में घुमाया जा सकता है
सांप, तुम कभी भरोसा के पात्र नहीं हो/
न होगे
और न ही कर सकते हो सामाजिक संरचना
सांप तुम सभ्य कब हुए।
विद्या शंकर विद्यार्थी
रामगढ़, झारखण्ड
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