जिंदगी की दौड़ से तुम कब तक भागोगे | Kavita Zindagi ki Daud se
जिंदगी की दौड़ से तुम कब तक भागोगे
जिंदगी की दौड़ से तुम कब तक भागोगे
जगा रहा हूँ सोने वाले कब तक जागोगे।
छिनी जा रही है तुम्हारी थाली की रोटियांँ
जीने के लिए अधिकार कब तक मांगोगे।
अधिकार मांगने से नहीं लड़ने से मिलेंगे
फटे – चिथड़े में पेबंद कब तक तांगोगे।
अर्थी के कफन तक बेच दिया जाएगा
अंधियारे में यूँ हरदम कब तक लांघोगे।
एक पांव निकला है एक ही निकलना है
भूखे प्यासे को भी कब तक निकालोगे।
विद्या शंकर विद्यार्थी
रामगढ़, झारखण्ड