किराए की मस्ती

( Kiraye ki masti )

 

खार ही खार बिखरे हैं चमन में

 मिलते नहीं फूल गुलाब के

सवालों की चादर में लिपटे हैं सभी

 मिलते नहीं उत्तर जवाब के

 साथ की जरूरत में आता नहीं साथ कोई

 निकल जाने पर वक्त के

 मिल जाते हैं हमदर्द  कई

मिलते हैं रिश्ते अपने पन के

 मगर उनमें कोई अपना नहीं होता

 बातों की फर्ज अदायगी है महज

हंस  तो लेते हैं मगर ,संग कोई नहीं रोता

 सब दिखावे के  सब्जबाग है  यहां

फूलों में खुशबू अब नहीं मिलती

 बनावट की सजावट का जमाना है

 सजती है झालर, दीप नहीं जलती

वह लेने दो अश्क भी आंखों से

 बेमुर्रवतों की बस्ती है यहां

 रहते हैं लोग खुदगर्जी में सभी

 किराए की सजती है मस्ती यहां

 

मोहन तिवारी

( मुंबई )

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