Bojh Swabhiman ka

बोझ स्वाभिमान का

( Bojh swabhiman ka )

 

भर लिए भंडार ज्ञान का
सर पर लादे बोझ स्वाभिमान का
दब गई बेचारी विनम्रता
संशय हर बात पर अपमान का

बढ़ गई अकड़ दंभ से
मिलने का मन बहुत कम से
आंकने लगे कीमत और की
बढ़ी औकात खुद की सबसे

अदब, लिहाज सब छोटे हुए
चलते सिक्के भी खोटे हुए
स्वयं की बोध में सब फीके हुए
रहता ख्याल अब स्व सम्मान का

छाई सर्वश्रेष्ठ की गलतफहमी
दिखती नहीं अब अपनी कमी
लगा मिलने सम्मान जब
कमतर सभी हो गए तब

नदिया छोटी , भर बह चली
उसके आगे व्यर्थ सब कह चली
थोड़े दिन में ही बदला मौसम
बेचारी अब खुद में ही सूख चली

मोहन तिवारी

( मुंबई )

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