कुदरत | Kudrat
कुदरत
( kudrat )
युगों-युगों से निसर्ग की दुनिया दीवानी,
चलो आज लिखते हैं कुछ नई कहानी।
बाँहें फैलाए खड़ी है ये कुदरत,
छेड़ते हैं बातें कुछ उसकी रूहानी।
अल्हड़ हवाएँ,वो उड़ते परिन्दे,
जगह -जगह छोड़ी है अमिट निशानी।
झीलों का देखो वो झलकता बदन,
बातें बहुत हैं उसकी आसमानी।
नदियों का बहना, नदियों का मुड़ना,
मखमली घासें,उन फूलों का खिलना।
मिलेगा सुकूँ उन बर्फ के पहाड़ों पर,
धीरे से कलियों का तू उंगली दबाना।
बुलाती है खुशबू वो गर्दन झुकाए,
पेड़ों की जांघों को झुक के सहलाए।
करती नहीं कोई किसी से शिकायत,
आते ही सैलानी पे नजर बिछाए।
सोती है कुदरत मानों दरख्त के ऊपर,
होते सुबह ही नहाती सरोवर।
कंक्रीट के जंगलों से व्यथित है कितनी,
पाती नहीं वहाँ चैन वो पलभर।
औद्योगिक मल से परेशां कुदरत,
दूषित नदियों से परेशां कुदरत।
उदास है देखो, कटते जंगलों से,
अनर्गल शोर से परेशां कुदरत।
पर्यावरण का पालन लोग करते नहीं,
करते छेड़खानी औ करते नादानी।
यौवन जब चढ़ता बसंत के ऊपर,
तब भी घरों से न निकलते सैलानी।
सपनों के कब्र पर खड़े मत होओ,
छतनार पेड़ों के नीचे तो आओ।
केसर के बागों से सजी है वादी,
कुछ वक़्त कुदरत से आँख मिलाओ।
दुनिया में कितना कोहराम मचा है,
मिसाइल से कोई न गगन सजाओ।
एक दूजे के दिल में जगह बनाकर,
किसी के घर पे न बम को गिराओ।
डरावनी रुत न कोई बुलाओ,
हो सके तो फूलों से आसमां सजाओ।
कुदरत ने बहुत कुछ बख्शा है तुझको,
दुनिया में मोहब्बत की गंगा बहाओ।
लेखक : रामकेश एम. यादव , मुंबई
( रॉयल्टी प्राप्त कवि व लेखक )