क्या कविता क्या गीत | Kya Kavita Kya Geet
क्या कविता क्या गीत
( Kya Kavita Kya Geet )
ऐसा लगता जीवन सारा,
व्यर्थ गया हो बीत।
क्या कविता क्या गीत।
पीड़ाओं ने मुझको पाला,
अभिशापों ने मुझे सम्हाला।
अंधियारे भरपूर मिले हैं,
अंजुरी भर मिल सका उजाला।
आंख झपकते सदा किया है,
सपनों ने भयभीत।
क्या कविता क्या गीत।
कैसा कथन कौन सी करनी,
बहती स्वार्थों की वैतरणी।
जाने कौन कहां आ पहुंची,
झंझाओं से जीवन तरणी।
अपनी अपनी पड़ी सभी को,
यही जगत की रीत।
क्या कविता क्या गीत।
जीवन में क्या खोया पाया,
कितनी बार हिसाब लगाया।
चारों ओर शून्य बिखरे हैं,
नहीं अंक कोई भी पाया।
प्राप्त हुई कोरी पुस्तक के,
पृष्ठ हो गये पीत।
क्या कविता क्या गीत।
धरा धाम धन की अभिलाषा,
सब कुछ अस्थिर फिर भी आशा।
सुख विलासिता में सब खोजें,
पाले दुर्दमनीय पिपासा।
पर सबका प्रारब्ध हेतु है,
ऐसा हुआ प्रतीत।
क्या कविता क्या गीत।
निज कृत कर्मों का सब लेखा,
चलता रहता कर अनदेखा।
सुख दु:ख दोनों मिले हुये हैं,
जिनमें नहीं विभाजक रेखा।
कहीं जीत में हार छिपी है,
कहीं हार में जीत।
क्या कविता क्या गीत।
जिसने सारा चक्र चलाया,
दिग्दिगंत में जिसकी माया।
अनाद्यंत उसके कौतुक का,
भेद किसी ने नहीं है पाया।
कण कण में झंकृत है उसका,
मधुर मधुर संगीत।
क्या कविता क्या गीत।
बिन उसके परित्राण नहीं है,
सम्भव कुछ कल्याण नहीं है।
जिसमें नहिं प्रतीति है उसकी,
चेतन उसमें प्राण नहीं है।
प्रभु प्रसाद मिल रहा निरंतर,
जिसकी जैसी प्रीत।
क्या कविता क्या गीत!
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)