सादा जीवन -उच्च विचार का नारा तो बहुतों ने दिया परंतु यदि किसी के जीवन में प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहते हैं तो वे महान आत्मा थे लाल बहादुर शास्त्री जी । प्रधानमंत्री जैसे सर्वोच्च पदों पर पहुंचने के बाद भी उनकी सादगी वैसे ही रहीं जैसे बचपन में थी ।

उन्होंने जो कहा उसे सर्वप्रथम स्वयं अपने जीवन में लागू भी किया। यदि गांधी जी यह कहते हैं कि मेरा जीवन ही मेरा संदेश है तो शास्त्री जी ने भी जिनका संयोग से उसी दिन जयंती पड़ती है कम नहीं थे बल्कि कुछ मायनो में उनसे भी अधिक थे।

प्रधानमंत्री बनने के पश्चात देश-विदेश के लोग यही समझते थे कि यह नन्हा सा आदमी भला कैसे इतने विशाल देश को संभाल सकेगा परंतु उन्होंने पाकिस्तान द्वारा किए गए हमले का ऐसा जोरदार जवाब दिया कि अयूब खान घबरा गया ।

शास्त्री जी के बुलंद इरादे देख उसकी आंखें खुल गईं ।जिसे उन्होंने एक कोमल, सरल और मृदुभाषी व्यक्ति समझा था उन्हें क्या पता था कि उसके पीछे एक लौह पुरुष छिपा हुआ था। एक बुरी तरह हारा हुआ घुसपैठियों दुश्मन और कर भी क्या सकता था । अपने ही लगाए हुए आग में उसके हाथ सुलग चुके थे।

ऐसी सादगी के प्रति मूर्ति शास्त्री जी का जन्म बनारस के पास रामनगर नामक कस्बे में 2 अक्टूबर सन 1904 को हुआ था। आपके पिता शारदा प्रसाद जी इलाहाबाद में के कायस्थ पाठशाला में अध्यापक थे ।

शारदा प्रसाद व उनकी पत्नी रामदुलारी दोनों ही आस्थावान प्रकृति के थे। माता-पिता के उच्च संस्कारों की छाया उनके संपूर्ण जीवन में प्रतिबिंबित होती रही । बचपन से ही पिताजी का स्वर्गवास होने के कारण उनकी मां के सभी चारित्रिक गुण उनमें समा गए थे। शास्त्री जी की परवरिश उनके ननिहाल में नाना हजारीलाल के संरक्षण में हुए। जो एक स्कूल अध्यापक और सुसंस्कृत व्यक्तित्व थे।

शास्त्री जी का बचपन अत्यधिक गरीबी में गुजरा । वे हाथी व फुटबॉल जैसे खेल खेलना चाहते थेपरंतु जब घर में खाने के लिए पैसे नहीं थे तो खेल का सामान खरीदने के पैसे कहां से आते। पर उनकी कुशाग्र बुद्धि ने इसका हल निकाल लिया।

वह खजूर के फूल जमा करता और उन्हें रेड्डी व फटे पुराने कपड़े में लपेटकर गेंद की शक्ल बना लेता और कुछ मजबूत पेड़ की शाखाएं तोड़कर उन्हें हाथी स्टिक बना लेता । लाल बहादुर ने परिस्थितियों से भरसक संघर्ष करके उन्हें अपने अनुकूल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वे जानते थे कि कर्म का मार्ग फूलों की सेज नहीं होता। बड़े-बड़े कर्म योगी को कष्ट सहन करने पड़ते हैं।

उन्होंने कभी अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आसान मार्ग नहीं चुना । छोटे कद वा कमजोर शरीर के बावजूद उनमें बला की हिम्मत थी । इतिहास इस बात का गवाह है की आसान कामों को करने वाले कभी कोई महान कार्य नहीं कर सके हैं ।

लाल बहादुर जी जिस मिट्टी के बने थे उसे संघर्ष के जल से खींचा गया था। प्रेम देना और प्रेम पाना उन्होंने अपने ननिहाल से सीखा था। किसी दुखी को देखकर द्रवित होने का गुण उन्हें अपनी मां से मिला था। शिक्षा का महत्व क्या होता है यह बात उन्हें अपने पिता के रक्त से मिली थी । शास्त्री जी को जब भी जैसी भी परिस्थिति मिली उन्होंने स्वयं को उस हाल में ढाल दिया । तकलीफें सही, परंतु स्वयं को उसमें घुलाया नहीं वरन उनसे स्वयं को संवारा।

”संतोष के दुर्ग को कोई भेद नहीं सकता” इस सत्य का पूरा लाभ उनको मिला। थोड़े में संतोष कर लेने वाले उस व्यक्ति के सामने आने वाले हर समस्या को निराशा ही हाथ लगती ।परेशानियां उनकी हमकदम तो थी फिर भी उन्होंने अपनी स्मृतियों में कहा है –“कुल मिलाकर उनका जीवन स्कूली जीवन हंसी खुशी ही बीता।”

वाणी की मधुरता और मित्रता पूर्ण व्यवहार उनके चरित्र की दो बड़ी विशेषताएं थी । उन्होंने मित्रता की भावना से बड़े हुए हाथ को कभी नहीं ठुकराया और ना ही मित्रता के लिए अपना हाथ बढ़ाने में कोई संकोच किया। जीवन में कर्म के प्रति गंभीरता पूर्ण होने कभी नहीं छोड़ा।

उन्होंने अपने जीवन में बहुत से छोटे बड़े कार्य किया लेकिन किसी भी काम को उन्होंने हेय दृष्टि से नहीं देखा। अपने प्रत्येक कर्म को उन्होंने किसी कुशल शिल्पी की भांति सधे हुए हाथों से संपन्न किया । जीवन में सबसे आगे निकलने वाला व्यक्ति वही होता है जो कर्म के प्रति सतर्क और साहसी हो । यह दोनों गुण उनमें प्रचुर मात्रा में थे।

परिवार की माली हालत ऐसी थी कि वे देश सेवा को समर्पित हो सके। परंतु देश की सेवा उन्हें घर की परिस्थिति से ज्यादा मूल्यवान लगती थी । अपने कर्म को पूजा का दर्जा देने वाले गांधी जी के प्रति उनका स्वाभाविक रुझान था। जिनकी एक झलक पाने के लिए कोई भी कीमत चुका सकते थे । पहली बार जब उन्होंने गांधी जी का भाषण सुना तो वह अविभूत हो गए।

लाल बहादुर अपनी मां की स्वीकृति लेना आवश्यक समझते थे। मां ने उनके देश सेवा के प्रति समर्पण के भाव को सुनकर कहा-” बेटा मुझे तुझ पर विश्वास है। मैं यह भली भांति जानती हूं कि तुमने जो भी फैसला किया होगा जल्दबाजी में नहीं बहुत सोच समझकर ही किया होगा।

मां के इस उत्तर से लाल बहादुर के दिल का बोझ उतार दिया । मां की स्वीकृति मिलते ही वे पूर्ण उत्साह के साथ छात्र आंदोलन में कूद पड़े । जिसका परिणाम यह हुआ कि सन 1921 में उन्हें प्रथम बार जेल जाना पड़ा । लेकिन उन्हें अपने गिरफ्तार होने का रंच मात्र भी अफसोस नहीं हुआ‌। इस गिरफ्तारी के कुछ ही घंटे बाद उन्हें चेतावनी देकर छोड़ दिया गया।

एक बार उन्हें साइकिल खरीदने की आवश्यकता थी परंतु उनके पास पैसा नहीं था। कठिनाइयों को जीवन की परीक्षा समझने वाले लाल बहादुर सब कुछ मुस्कुरा कर झेलते थे । उनकी सोच निम्न पंक्तियों में व्यक्त की जा सकती है—
मुश्किलें इंसान का हौसला आजमाती हैं ,
स्वप्न का पर्दा निगाहों से हटाती हैं।
गिर गया , गिरकर संभल ऐ आदमी ,
ठोकरे इंसान को चलना सिखाती हैं

जिंदगी की सच्चाई यही है कि गिरना और गिरकर संभालना ही चलना सीखने की पहली शर्त है। लाल बहादुर से कुछ अलग हटकर सोचते थे । इसलिए भीड़ से कुछ अलग हटकर अपनी पहचान बना सके।

उनकी पत्नी ललिता देवी भी किसी जोगनी से काम नहीं थी। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण तब देखने को मिला जब लाल बहादुर केंद्र के मंत्री बनाए गए, तो ललिता जी के वस्त्रो की संख्या दो से कुछ आगे बढ़ी । वह भी तब जब उनकी बेटियों ने उन्हें साड़ियां पहनने की जिम्मेदारी संभाल ली।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात शास्त्री जी को पुलिस और यातायात मंत्री के रूप में पदभार संभालने की जिम्मेदारी का मौका मिला। जिसमें उन्होंने उत्तर प्रदेश के सड़क यातायात का राष्ट्रीयकरण कर दिया। इसके पश्चात अन्य राज्यों का राष्ट्रीयकरण हुआ।

नेहरू जी लाल बहादुर के प्रतिभा को अच्छी तरह पहचान चुके थे । 27 मई 1964 को नेहरू जी के देहावसान के पश्चात हर दिल में यही प्रश्न पूछने लगा कि नेहरू जी के बाद कौन संभालेगा देश की बागडोर । कौन संवारेगा भारत का भविष्य? निश्चित ही लाल बहादुर शास्त्री कर्तव्य निष्ठ जिम्मेदार
व्यक्तित्व को भावी प्रधानमंत्री के रूप में पहले ही जवाहरलाल जी ने चुन लिया था।

परंतु शास्त्री जी ज्यादा दिनों तक जिंदा नहीं रह सके। 10 जनवरी, 1966 की रात्रि को दिल का दौरा पड़ा और 11 जनवरी को सुबह होते-होते परम तत्व में विलीन हो गए।

साभार – देश के कर्णधार पृष्ठ १२६-१२९

 

लेखक : योगगुरु धर्मचंद्र

प्रज्ञा योग साधना शोध एवं प्रशिक्षण संस्थान
सहसो बाई पास ( डाक घर के सामने) प्रयागराज

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