माँ पर नज़्म | Maa par Nazm
माँ पर नज़्म
( Maa par nazm )
पिलाकर अमृत का प्याला,
क्यों तनाव में रहती है माँ।
घर की सारी बला उठाकर
फटी जिन्दगी सीती है माँ।
क्यों अधिकार मिटा उसका,
इतना दुःख सहती है माँ।
जग की धुरी कहलाने वाली,
क्यों वृद्धाश्रम जाती है माँ ?
नभ-सी ऊँची, सागर-सी गहरी,
जन्म सभी को देती है माँ।
पीयूष पिलाती, लोरी सुनाती,
घने दरख्त सी होती है माँ।
काँटों पे चलना, तूफ़ाँ से लड़ना,
हर कला सिखाती है माँ।
राम -कृष्ण की गाथा गाकर,
नित्य संस्कार बोती है माँ।
पैरों के तले है जन्नत उसके,
ममता की सागर होती है माँ।
सिर पे हाथ फिराकर अपना,
सारा दुःख हर लेती है माँ।
झरना, नदिया, झील, समंदर,
इनके जैसे होती है माँ।
सारे रिश्ते झूठे जग में,
निःस्वार्थ प्रेम करती है माँ।
एक चूल्हे की रोटी जैसी,
तेज धूप में तपती है माँ।
अपने आँचल के छावों में,
सबको गले लगाती है माँ।
अंतिम पड़ाव में आते -आते,
टूटी खटिया सोती है माँ।
तकलीफ नहीं जताती अपना,
आँसू पीकर सोती है माँ।