डॉ. बीना सिंह “रागी” की कविताएं | Dr. Beena  Singh Raggi Poetry

एक मासूम बच्ची की रेप कर हत्या पर यह पंक्तियां

राक्षस रूपी मान्यवर तू इंसान नहीं
ना है जानवर
क्योंकि जानवर भी कभी नहीं करते अबोध शावक छौना पर वार
तूने काम जगाकर सीमाएँ लांघकर मर्यादाएं पारकर अंग अंग नोच कर षड्यंत्र में हुआ कारगर
निरह बिटिया को डोली चढ़कर जाना था साजन के द्वार
तूने उसे मार कर पहुंचा दिया लाशघर
तू इंसान नहीं ना है जानवर

रैन दिन जागकर खोई रही ख्यालों में रात भर
पश्चात सोचा क्यों ना अपने कलम को धार देकर
कुछ लिख दूँ बस यही ठानकर
सजा ए मौत दूं तुमको उबलते कढ़ाई में
छानकर
दावत दे दूं गिद्धों के झुंड को
वह आए खाए तुम्हें मिलजुल बांटकर
पर नहीं मैं इंसान हूं सृष्टि के रचनाकार की कदरदान हूं
कदापि मैं ऐसा कर नहीं सकती यह सब जानकर
सुनो राक्षस रूपी मान्यवर
तुम इंसान नहीं हो ना हो जानवर

फौजी बलम

प्रीत का घट लिए बाट निहारे गांव में गोरी
आए नाहीं फौजी बलमा कैसे मैं खेलूं होरी
प्रेम तरंग मन उठे उमंग तन है लेवें अंगड़ाई
सौगंध इन चरणों की बनु मैं तोरी परछाई
आम्र मंजरी बौर बौराई फागुन बयार बहे पुरवइयां
महुआ पककर गदराई बिरहा तान छेड़े है कोयलियां
नित प्रतीक्षा में भरे भरे हैं मोरे दौ नयन
सजना तोरे कहां है सजनी पूछे हैं कक्ष शयन
मृदुल मधुर से अधर अधीर कासे मैं करूं बतिया
झर झर भाव बहें हैं ऐसै जैसे बहती सरिता नदियां
मैं भी जानू भारती के तुम लाल प्यारे
पर मेरा सिंदूर मेरी लाज पति तुम हो हमारे
कर जोड़ विनती मां से कर लो खातिर मोरी
प्यासी अंखियन को मिल जाए एक झलक बस तोरी
प्रीत का घट लिए बाट निहारे गांव की गोरी
आए नाहीं फौजी बलमा कैसे खेलूं मैं होरी

मां बागेश्वरी भारती


मां बागेश्वरी भारती
मां करू तेरी आरती
माते बसो कंठ में आ
मैया मधु वासनी

मां कलम में धार दो
मां तिमिर से तार दो
बुद्धि दात्रि चंद्र कांति
मैया विद्या दायिनी

जगती कुमुदि मैया
पार लगाइयो नैया
शारदे भुवनेश्वरी
भैया हंस वाहिनी

उज्ज्वल चरित्र होए
जीवन कमल होए
बस यही वर दिजो
मैया वर दायनी

गंगा ( मनहर घनाछरी छंद )

गंगा मैया ने है ठाना
हमें धरा पे है आना
भागीरथ माध्यम है
जय गंगा माई की
हर्षित मुदित होके
शिवजी ने जटा खोले
कल कल धरा पर
आई गंगा माई जी
पावन साफ पाक है
बुझे सबकी प्यास है
जीवन में सदा काम
आती गंगा माई जी
देवभूमि है हमारी
गंगा माई महतारी
वेद ग्रंथों ने आरती
गाई गंगा माई की

चलते चलते कुछ यूं ही


कहीं कोई होठों पर अपने सुरताल सजा रहा है
कहीं किसी का भूख से भूखा पेट कुलबुला रहा है


दुखिया के खातिर वो जो मुखिया बने हैं सुखिया
भोजन में 56 भोग पूरी खीर गुलगुला चबा रहा है


कठपुतली है हम सब डोर ऊपर वाले की हाथों में
इशारे पर नाचाता है और वह झुनझुना बजा रहा है

दौलत शोहरत के संग बुलंदियों पर हम भी चढ़ जाए पर
बीना तुमको जात-पात अमीर गरीब का सिलसिला दबा रहा है

मैं मां हूं


कारी कारी बदरी सन सनन बहती हवा शीतल पुरवाई हूं
हां साब मैं मां हूं हंसी-खुशी के संग संग दर्द और तन्हाई हूं
नेह निमंत्रण देकर रिश्तों को बांधे रखा हमने
फर्ज समझ बोझ को अपने दोनों कांधे रखा हमने
जननी हूं धात्री हूं खुदा रब्बा गाड भगवन की परछाई हूं
हां साब
चंचल चपल दौड़ती भागती चिंता की तरंग
निश दिन भेदती तीर आयु का हमारा अंग अंग
हूं सरिता सी कल कल झरना सी झर झर
तो कभी कभी समंदर की गहराई हूं
हां साब
संतान के सुखे कंठ को अपने स्तन के दूध से सींचा हमने
मुफलिसी में खून की जान बचाने को खुद को कोठे पर बेचा हमने
रंभा मेनका उर्वशी सावित्री राधा मीरा के संग संग सीता माई हूं
हां साब मैं मां हूं हंसी खुशी के संग संग दर्द और तन्हाई हूं
लोग कहते हैं मैं ही खुदा रब्बा गॉड भगवान की परछाई हूं

Dr. Beena Singh

डॉ बीना सिंह “रागी”

( छत्तीसगढ़ )

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