मैनेजमेंट गुरु- मां | Management Guru Maa
वर्तमान समय में मैनेजमेंट के गुण सीखाने के लिए बड़े-बड़े इंस्टिट्यूट बन गए हैं । परंतु सबसे बड़ी इंस्टीट्यूट तो घर की मां है। जिससे यदि हम मैनेजमेंट के गुण को सीख सके तो जीवन सफल हो सकता है।
आधुनिक माताएं जहां कारपोरेट जगत में सफलता के परचम लहरा रही हैं वहीं परिवार का मैनेजमेंट भी बखूबी निभा रही हैं। एक कामकाजी मां को यदि ध्यान से उसकी दिनचर्या का अवलोकन करें तो हम समझ सकते हैं की मां स्वयं में एक चलती फिरती यूनिवर्सिटी ही है।
बच्चों को उठाना , उन्हें स्कूल जाने के लिए तैयार करना, पति के ऑफिस के टिफिन की तैयारी के साथ ही स्वयं को उसी के साथ आफिस जाने को तैयार करते रहना, दिनभर ऑफिस वर्क करके आने पर भी पति तो थकान का बहाना करके बिस्तर पकड़ लेता है, वही मां कितनी भी थकीं हुईं क्यों न हो फिर भी पति के लिए भोजन बनाना,बच्चों की फरमाइशें पूरी करती है। यह सब कार्य वह अपार धैर्य के साथ करती है ।
विपरीत परिस्थितियों में वह कभी भी विचलित नहीं होती। तनाव में जहां सामान्य पुरुष आपा खो देता है । मां कभी भी नाराज नहीं होती । यही कारण है कि आत्महत्या करने में पुरुषों की अपेक्षा मां की संख्या शून्य हैं ।
पति की मृत्यु हो जाने पर भी किस प्रकार से बच्चों को सही मार्ग दिखाती है मां इस विषय पर प्रबंधन की एक पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है । किसी भी मां का जीवन एक सफल मैनेजमेंट गुरु के जीवन से किसी भी रूप में कम नहीं आंका जा सकता है।
यही कारण है कि मां को ईश्वर का साकार रूप माना जाता है। जिसको बचपन में मां का प्यार नहीं मिलता उसकी जिंदगी सूनी सूनी रह जाती है।समाज में फैली घृणा, द्वेष , नफरत की जड़ को मां की ममता भरी छांव में ही आनंद , शांति , प्रेम, करुणा से बदला जा सकता है।
आज स्त्री तो है लेकिन मां नहीं है। मां जिंदगी का वह अनोखा तोहफा है, जिसके नजदीक आने से सहज में शांति का सौंदर्य बरसने लगता है।
आधुनिकता की लहर में आज स्त्रियां अपने वजूद को भूलतीं जा रही हैं। आज माताओं के पास बच्चों के लिए प्रेम भरे दो शब्द कहने की भी फुर्सत नहीं है।
आज हम हम गांधी , शिवाजी, सुभाषचंद्र बोस, विवेकानंद जैसी संतानों की कल्पना तो करते हैं परंतु पुतलीबाई , जीजाबाई जैसी मां तो हो।
सड़े गले भेज बीज कैसे सुडौल वृक्ष की कल्पना की जा सकती है। वर्तमान समय में यदि युवा पीढ़ी का चारित्रिक पतन हो रहा है तो उसका मूल कारण हमारे माता-पिता एवं गुरुओं की कमी है।
मां के गर्भ से ही जब बच्चों को घृणा, द्वेष , नफरत , ईर्ष्या का 20 पिलाया जा रहा हो तो कैसे श्रेष्ठ हम योग्य पीढ़ी के कल्पना की जा सकती है। सीखने से जब पेड़ पौधे की प्रकृति बदली जा सकती है तो मनुष्य के क्यों नहीं बदल सकते आवश्यकता है अभिभावक अपनी गलती को समझें । बच्चों को कीमती खिलौने, मोटर गाड़ियों के साथ ही मां-बाप का प्यार भी चाहिए इसे ना भूले।
योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )