मंज़िल की जुस्तुजू | Manzil ki Justuju
मंज़िल की जुस्तुजू
( Manzil ki Justuju )
मंज़िल की जुस्तुजू थी मैं लेकिन भटक गया
मैं शहरे दिल को ढूँढने यूँ दूर तक गया
आहट जो आने की मिली मुखड़ा चमक गया
दिल याद कर के जल्वों को तेरे धड़क गया
रिश्तों का ये पहाड़ ज़रा क्या दरक गया
नाराज़ हो वो ख़त मेरे दर पर पटक गया
शरमाया चाँद आस्मां का भी फ़लक में आज
जब इस ज़मी के चाँद का आँचल सरक गया
आराम मेरे ज़ख़्मों को यारा मिला न फिर
तड़पाने को मगर मुझे छिड़का नमक गया
इज़हार इश्क़ का मुझे करना तो था मगर
जब साथ लफ़्ज़ों का न मिला मैं अटक गया
शर्म -ओ-हया के उठ गये पर्दे भी देखिए
आँखों से राज़-ए-इश्क़ भी देखो झलक गया
मीना जो इज़्ज़तें मिली शुहरत जो है मिली
मेरा वुजूद तब से हर इक को खटक गया
कवियत्री: मीना भट्ट सिद्धार्थ
( जबलपुर )
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