घर का पूत कुंवारा डौलै | मारवाड़ी रचना
घर का पूत कुंवारा डौलै
घर का पूत कुंवारा डौलै, करै पाड़ोस्यां क फैरा।
नैणं मूंद अर आंधा होग्या, घर का बड़ा बडेरा।
फिरै कुंवारों च्यारूं चौखटां, टाबर हुयो जवान।
कठै बिंदणी कद मिल ज्यासी, लागै कोई तान।
बण ठण निकलै बीच बजारां, फैशन नित लगाकै।
घणों पसीनो खून बहावै, छोरो ल्यावै घणों कमाकै।
छोरी हालो रिश्तों पूछै, जद आंख्या कोनी खोलै।
कितो खरचो ब्याह म करस्यो, हळवा हळवा बोलैं।
म्हारो छोरो हीरो होग्यो, थोड़ो सोनो थे भी घालो।
सगळो गांव जिमाणा की, आफत थे भी पाळो।
दुपहिया रो टैम गयो इबतो, गाड़ी घर म देओ।
बिक ज्यावै घर बार च्याहे, लोन बैंक सूं लेवो।
रिपियो अर नारेळ हाथ ले, फोटू म्हे खिचवाल्या।
समधी समधी री जड़ होवै, रिश्ता न निभाल्यां।
कवि : रमाकांत सोनी सुदर्शन
नवलगढ़ जिला झुंझुनू
( राजस्थान )