महॅंगी हुई तरकारी
महॅंगी हुई तरकारी
आज बेहद-महॅंगी हो गई है देशों में ये तरकारी,
क्या बनाएं, क्या खाएं सोच रही घरों की नारी।
छू रहा दाम आसमान इन तरकारियों का सारी,
बढ़ रही है मुसीबतें आम आदमी और हमारी।।
कभी सोचूं ये शिकायत करुं मैं किससे तुम्हारी,
आलू-प्याज़ ख़रीदना भी आज हो रहा दुश्वारी।
ग़रीब अमीर जिसे रोज़ खाते आज़ दे रहें गारी,
ज़िंदगी अब सताने लगी है बढ़ रही चिनगारी।।
कैसे ख़्याल रखें शरीर का क्या करें खरीददारी,
बेअसर हो रही मिर्ची ना रहें टमाटर हितकारी।
करेला खीरा लौकी भी रूला रही ऑंख हमारी,
एक साधारण मज़दूर हूॅं मैं न कोई अधिकारी।।
भिन्डी है बेहद गुस्साई तोरई पालक लगें खारी,
गोभी टिंडा ग्वारफली लेना बस में नही हमारी।
बनों सारथी कोई हमारी बेटियां घरों में कुॅंवारी,
कद्दू गाजर बैंगन दादा ना खाये औरत हमारी।।
ये खट्टा मीठा, दही दूध भी बढ़ा रहा है बीमारी,
आफ़त सब पर आज बढ़ रही यह भारी भारी।
है सबकी लाचारी साथियों वो नर है चाहें नारी,
परचूनी सामग्री मे भी अब ना रही ईमानदारी।।
रचनाकार : गणपत लाल उदय
अजमेर ( राजस्थान )
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