मेरा घर मर रहा है
ये है वह दरवाजा जो कि माँ और बाबूजी के हाथों सैकड़ो बार खुला बन्द हुआ.. ये जो रंग लगा है न यह मेरे हाथों से ही लगा हुआ है.. एक कमरे का घर था वो।
छोटा सा कमरा मगर बहुत बड़े मन के माता पिता और बहुत प्यारे प्यारे भाई बहनों की शरारतों ओर स्नेह के साथ किसी राजमहल से कम नही लगता था.. चार मेहमान भी आ जाते तो जगह कम नही पड़ती थी।
एक कमरा, उसी में खाना बनता था, उसी में बाथरूम था, वही बेडरूम ओर वही हॉल.. कितना कुछ समेटा हुआ उस एक कमरे के घर मे.. छत पर टिन टप्पर लगे थे.. गर्मी में खूब तपता था तो उस पर कवेलू बिछा दिए गए थे.. विजू ओर विनोद का जन्म यही इसी घर मे हुआ था।
बाजू वाले कमरे में काशी भुआ जी रहती थी अपने भरे पूरे परिवार के साथ.. हमारे से बड़ा परिवार भुआ का था.. भले ही खून का रिश्ता नही था भुआ से मगर प्यार इतना अधिक की वह किसी खून के रिश्ते को मोहताज नही।
वे ब्राह्मण थी और उनके यहा पकने वाला भोजन हमारे यहाँ ओर हमारे यहाँ का भोजन उनके यहाँ हमेशा आता जाता था.. कभी शाम को हमारे यहाँ से सब्जी वो ले लेते थे और कभी कभी हम भी यही करते थे.. भुआ के घर के पास मामाजी स्व. श्री कारूलाल जी भिमावत और उनके छोटे भाई श्री शांतिलाल जी भिमावत रहते थे.. वह भी एक ही कमरा ओर उनका भी भरापूरा परिवार।
बहुत कुछ यादे जुड़ी है भाला जी के किराए के इस मकान से.. अकोला में खोलेश्वर के इस घर मे हम लोग बरसो रहे.. बरसो.. इतने सालों तक कि माँ चली गयी.. बाबूजी विदा हो गए.. बड़े मामाजी भी नही रहे.. कभी भी भाला जी ने नही कहा कि हमारा घर खाली कर दो.. फिर हम सब के अलग अलग घर बन गए।
एक कमरे में रहने वाले तीन भाइयों बड़े बड़े घर हो गए.. घर तो बहुत बड़े बन गए अब मगर उस मे लोग कम रहते हैं.. सब के अपने अपने अलग शयनकक्ष है मगर एक ही गोदड़ी में घुस कर जो हम बच्चे सोते थे वो मजा भला अब कहा..!
जब हमारे घर बन गए तब भाला जी के लड़के ने मुझ से कहा कि हमारे पिताजी तो अब नही है और तुम्हारे बाबूजी भी नही रहे.. मेरे पिताजी ने कहा था कि भागचन्द्र जी के परिवार से कभी भी कमरा खाली मत कराना मगर अब तुम्हारे सब के बड़े बड़े घर बन गए हैं और तुम लोग यहाँ रहते भी नही.. तो तुम कमरा खाली कर सकते हो क्या।
हमने पल भर की भी देर नही की ओर बचपन के सब से सुखद समय के साक्षी रहे उस घर को मालक को सौप दिया.. अब वह घर वीरान हो गया है.. उसकी छत भी न जाने कहा गुम हो गयी.. समय के अजीब रूप को देखना कितना कष्टप्रद है।
माँ और बाबूजी के साथ साथ अब वह घर भी नही रहा.. कभी गोबर से लिपाई की तो कभी चुने से उसे हम पोतते थे.. मगर अब वह किसी मरम्मत का मोहताज नही.. वह अंतिम सांसे गिन रहा है.. उसकी मृत्यु निश्चित है.. बस फर्क इतना है कि माँ और बाबूजी तो पल भर में इहलोक चले गए मगर उनका घर धीरे धीरे मरणासन्न हो रहा है।
धीरे धीरे वह अपनी मृत्यु के करीब पहुच रहा है.. ओर फिर यह सदा सदा के लिए मेरी आँखों से ओझल हो जायेगा.. यहाँ फिर नई इमारत बनेगी.. फिर कोई परिवार आबाद होंगा.. फिर किसी विजू विनोद का जन्म होंगा।
सब कुछ होंगा मगर माँ नही होंगी.. बाबूजी न होंगे.. मैं नही रहूंगा ओर मेरा परिवार भी वहां नही होंगा.. फिर किसी ओर की इस घर से यादे जुड़ेंगी.. फिर कोई और मुस्करायेंगा.. फिर कोई और अपनी यादों को सजाएगा।
यही कालचक्रतंत्र है.. यही नियति के खेल है.. कल की उजड़ी रामजी की अयोध्या नगरी आज फिर आबाद हो रही है.. मगर राम फिर भी वहां नही होंगे.. समय के चक्र से कोई नही बचा.. फिर हमारी बिसात ही क्या।
टूटना, बिखरना, जुड़ना समय की यही एक पहचान है.. आज मेरा घर टूट रहा है.. आज मेरे बचपन का आशियाना उजड़ रहा है.. कागजो पर तो कभी हम उसके मालिक थे ही नही मगर जुड़ाव इस कदर की कभी उसे पराया समझा ही नही।
सारे दुःख की जड़ यही अपनत्व है.. पराये की मौत पर हैरानी होती है.. अपनों के जाने से दुःख होता है.. यह घर भी तो अपना था.. अपना घर.. माँ और बाबूजी की छत्र छाया में फलता फूलता घर.. अब तीनो नही है।
तीनो मुझ से दूर हो गए हैं.. तीनो मुझे रुलाते है.. तीनो मुझे याद आते हैं.. तीनो के बिना मैं अधूरा हु.. ओर अधूरे इंसान के जज्बातों की परवाह ईश्वर भी नही करता है.. अनेक अनेक धन्यवाद।
रमेश तोरावत जैन
अकोला
यह भी पढ़ें:-