मिट्टी की सुगंध | पुस्तक समीक्षा
पुस्तक- मिट्टी की सुगंध
रचनाकार- रामकेश एम० यादव, मुंबई (महाराष्ट्र)
समीक्षक –अतुल कुमार शर्मा, सम्भल ( उत्तर प्रदेश)
देश की माटी, महके पल-पल
मुंबई के रॉयल्टी प्राप्त कवि श्री रामकेश एम० यादव जी की पुस्तक ‘मिट्टी की सुगंध’ मेरे सामने है, पढ़ने की शुरुआत जब मैंने की तो मैं राष्ट्रभक्ति की गंगा में डुबकी लगाता ही चला गया और मेरे हृदय ने विश्राम का आदेश नहीं दिया।
जैसे-जैसे मैं पेज आगे पलटता गया, उतनी ही शब्दों की मिठास बढ़ती गई, शब्दों में सहजता के साथ-साथ गंभीरता भी आती चली गई। पाठकों को बहुत अधिक अर्थ लगाने या भाव ढूंढने की आवश्यकता भी नहीं, क्योंकि कवि ने खुले मन से रात-दिन प्रयोग में आने वाले शब्दों का भी इस्तेमाल किया है, जिससे भाव तुरन्त स्पष्ट हो जाते हैं।
कहीं-कहीं उर्दू शब्दों का इस्तेमाल करने से काव्य में और भी खूबसूरती बढ़ जाती है। उर्दू शब्द दरिया, इजहार ए मोहब्बत, रुह, अदब, शमा ,परिंदे आदि पाठकों का स्वाद बढ़ा देते हैं। राष्ट्रप्रेम का ज्वार शुरू से अंत तक उमड़ता ही दिखता है, उसे देख कर मुझे देशभक्त पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल की लाइनें याद आती हैं –
“हे मातृभूमि तेरी जय हो, सदा विजय हो/
प्रत्येक भक्त तेरा, सुख-शांति-कांतिमय हो/
अज्ञान की निशा में, दुख से भरी दिशा में/
संसार के हृदय में तेरी प्रभा उदय हो।”
इसी भाव की, यादव जी की लाइनों में देश-प्रेम की भावना देखें-
“इंच इंच कट जाओ भले, न मस्तक मां का झुकने दो।
मान बढ़ाओ देश का अपने, विश्व में इसे महकने दो।”
राष्ट्रभक्ति के साथ-साथ कवि ने विश्व-शांति की कामना भी अपने शब्दों में की है-
“सजाओ न मिसाइलों से गगन, बसर सभी का होने दो।
विश्व-शांति के हम हैं साधक, हरेक देश को रहने दो।”
“आवाज का टुकड़ा करो नहीं, तबाही कहीं न मचने दो।
अमन की हवा चहुंओर बहे, न हिटलर-शाही चलने दो।”
कवि ने देश में शान्ति ,प्रेम और अखंडता को बनाए रखने के लिए भी चिंतन किया है, जिन पहलुओं से देश समृद्ध हो सकता है, संस्कारों से युक्त हो सकता है और आर्थिक दृष्टि से भी शक्तिशाली बन सकता है, ऐसे तथ्यों का समावेश भी अपने काव्य-संग्रह में किया है।
नारी शक्ति , जनजागरण, आपसी प्रेम, सामंजस्य की भावना से ओतप्रोत होकर, कवि ने बहुत कुछ लिख डाला है जो कि स्तंभ रूप में सदैव देश के काम आएगा। नारी शक्ति को जागरूक करते हुए, उनको अपने कर्तव्य की ओर मोड़ने की कोशिश की है, और देशवासियों को संदेश भी इन लाइनों में दिया है-
“आधी आबादी जो दुनिया की, सूरत न उसकी बिगड़ने दो।
जो आग भरी थी मेरे अंदर, तू अपने अंदर जलने दो।”
“पाश्चात्य संस्कृति पनपे न, छाया तक न पड़ने दो।
अबला न कहो उन्हें जगवालों, सबला बनके रहने दो।”
कुछ शब्दों की साज-सज्जा तो देखते ही बनती है, यथा-
“भूख हिमालय के जैसी, आंसू न उनको पीने दो।
मत बांधो आंखों पर पट्टी, धरती न मरुस्थल होने दो।”
“घायल हुई कलम मेरी, यथार्थ यहां पे लिखने दो।
कितने बच्चे चीख रहे, आवाज यहां से उठने दो।”
बढ़ते नगरीकरण से तमाम समस्याओं का उदय होता है , रोजगार की समस्याएं पैदा होती हैं, ज़मीनें कम होती जा रही हैं, जरूरतें बढ़ती जा रही हैं, चकाचौंध में आदमी अंधा होता जा रहा है, फैशन के नाम पर लुटता जा रहा है, जबकि खुद लड़खड़ाता हुआ मर-मर कर जीने को मजबूर है।
परंपराओं का विनाश करके आदमी ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का काम किया है और अपनी पीढ़ियों को नंगापन परोसने की कोशिश भी। इस पर कवि की चिंता और फिर मनन देखिए-
“आधुनिकीकरण के चक्कर में, गांव मलिन न होने दो।
ताल- तलैया पोखर नदियां, इसको भी न पटने दो।”
“सजी रहे चौपाल गांव की, लड़े जो कुश्ती लड़ने दो।
कोयल, खंजन, मोर, गौरैया, मचाएं धूम मचाने दो।”
इस तरह हम पाते हैं कि कवि श्री रामकेश एम० यादव जी ने काव्य-संग्रह “मिट्टी की सुगंध” रचकर, भारत को सशक्त बनाने के स्वप्न को साकार करने की सफल कोशिश की है, अपने शब्दों के माध्यम से पाठकों के दिलों में राष्ट्रप्रेम का दीप प्रज्वलित करने का प्रयास किया है, और अपने वतन की मिट्टी को और अधिक सुगंधित बनाने का लक्ष्य सम्पूर्ण समाज के समक्ष रखा है।
अतुल कुमार शर्मा
सम्भल (उत्तर प्रदेश)